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________________ १०४ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि अपनी शुण्डाको इधर-उधर हिला रहा था। पथिक भयभीत होकर भागने लगा। हाथी भी उसके पीछे-पीछे लग चला। आगे एक अन्धा कुआं था। वह घास-फूससे ढंका था। पन्थी उसे न जान सका और उसमे गिर गया। उसने एक सरकनी टहनी पकड़ ली, जो कुएंको दीवालमें उग आयी थी। उसके सहारे लटकता हुआ वह कठिन दुःख भोगने लगा। ऊपर हाथी खड़ा था, चार दिशाओंमे चार सर्प थे, नीचे अजगर मुंह बाये पड़ा था। टहनीकी जडको दो चूहे काट रहे थे। __उस कूपके पास एक बड़का वृक्ष था। उसमें मधु-मक्खियोंका छत्ता लगा था। हाथीने उसे हिला दिया। अगण्य मक्खी उड़ने लगीं। साथ ही छत्तेसे मधु भी चू उठा और उसकी बूंदें पन्थीके मुंहपर गिरने लगी। उसकी रसना उनका रसास्वादन ले उठी । उस आनन्दमें वह अपने घोर दुःखको भूल गया, "उहिसमौ मधु कणौ अहिर ऊपर पड़त रस रसना लीयो। वा ब्यूंद के सुष लागि लोभी सब्बै दुख बीसरि गयो ॥४॥" यहाँ मधुका बूंद ही सांसारिक सुख है। जीव पथिक है। अज्ञान भयानक हाथी है। संसार ही कुओं है । गति सर्प है। व्याधियां ही मक्खियां है । निगोद अजगर है। यह संसारका व्यवहार है। अतः हे गवार ! तू चेत जा । जो मोहरूपी निद्रामें सोते हैं, वे अत्यधिक असावधान है। शरीर और इन्द्रियोके रसमें भटककर इसने जिनेन्द्र-जैसे परम ब्रह्मको भुला दिया है, अतः उसका नर-जन्म व्यर्थ है। छीहलका कथन है कि अबतक तू नाना दीर्घ दुःखोंको सहन करता रहा है। अब जिनेन्द्रको बतायो युक्तिसे तू मुक्तिके परम सुखको प्राप्त कर सकता है, "संसार को एहु विवहारौ चित चेतहु रे गंवारो ! मोह निद्रा में जे सुता, ते प्राणी भति बेगुता ॥ प्राणी बेगुता बहुत ते जिन परम ब्रह्म बिसारियो । भ्रम भूलि इंदि तनौरसि नर जनम वृथा गंवाइयो । बहु काल नाना दुख दीरघ सझा 'छीहल' कहै करि धर्म । जिन भाषित जुगतिस्यौ त्यो मुक्ति पद रहौ ॥६॥" उदरगीत ___यह गीत भी उपर्युक्त गुटके में ही संकलित है। इसमें केवल चार पद्य है। कृति सुन्दर है । जीव दस मास गर्भमें रहता है। उसे अत्यधिक कष्ट सहने पड़ते हैं।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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