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जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य
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होली खेले। उसे तो 'विसूरि विसूरि' कर मरना है । सुनारिन विरहरूपी समुद्रमे इस भांति डूब गयी है कि उसकी थाह नहीं मिल पाती । उसके प्राणोंको मदनरूपी सुनारने हृदयरूपी अंगीठीपर जला- जलाकर कोयला कर दिया है।
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अब उनके चेहरे आह्लादित
कतिपय दिनोंके उपरान्त फिर वे पाँचों मिलीं। थे । उनका साईं आ गया था । उनके दिन सुखमें बीत रहे थे । वियोग देनेवाला वसन्त चला गया। अब वर्षाऋतुका आगमन हो गया, तो पति भी आ गया है । मनकी सब आशाएं पूरी हो गयी है । तम्बोलनीने चोली खोलकर, अपार यौवनसे भरे गातको निकाला और पतिके साथ बहुत प्रकारसे रंग किया, नयनसे नयन मिलाया । इसे ही रभस आलिंगन कहते है । इसके लिए कबीरका दिल मचला था और उससे भी पूर्व मुनि रामसिंहका । साधक जीव जब ब्रह्मसे मिलता है, तो ऐसे ही अंगसे अंग मिलाकर मिलता है। बिना एक हुए वह रह ही नहीं सकता । तम्बोलनीका यह मिलन रहस्यवादको तुरीयावस्था हैं । परम आनन्द उसीका पर्यायवाची है। वह मिलन देखिए,
"चोली खोल तम्बोलनी काव्या गात्र अपार ।
रंग कीया बहु प्रीयसुं नयन मिलाई तार ॥ ५९॥ "
पन्थीगीत
यह मंन्दिर दीवान बघीचन्दजी, जयपुरके गुटका नं० २७, वेष्टन नं० ९७३ में निबद्ध है । इसमें केवल छह पद्य हैं । यह भी एक रूपक काव्य है । इसमें प्रचलित कथाका सहारा लेकर रूपककी रचना की गयी है ।
एक रास्तागीर राहमे चलते-चलते सिंहोके वनमें पहुँच गया। वहीं रास्ता भूल जानेसे वह इधर-उधर भटकने लगा । ऐसी ही अवस्था में उसे, सामने एक मदमत्त हाथी आता हुआ दिखाई दिया। उसका रूप रोद्र था और वह क्रोधमें
१. पाता यौवन फाग रिति परम पीया दूरि ।
रली न पूरी जीय की मरउ विसूरि विसूरि ॥ ४२ ॥
२. कहइ सुनारी पंचमी अंग अपना दाह ।
हुं तउ बूडी विरहमइ पांउ नाहीं याह ॥ ४५ ॥
हया अंगीठी मूसि जिय मदन सुनार अभंग । कोयला कीया देह का मिल्या सवेइ सुहाग ॥४६॥