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________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य १०३ होली खेले। उसे तो 'विसूरि विसूरि' कर मरना है । सुनारिन विरहरूपी समुद्रमे इस भांति डूब गयी है कि उसकी थाह नहीं मिल पाती । उसके प्राणोंको मदनरूपी सुनारने हृदयरूपी अंगीठीपर जला- जलाकर कोयला कर दिया है। २ अब उनके चेहरे आह्लादित कतिपय दिनोंके उपरान्त फिर वे पाँचों मिलीं। थे । उनका साईं आ गया था । उनके दिन सुखमें बीत रहे थे । वियोग देनेवाला वसन्त चला गया। अब वर्षाऋतुका आगमन हो गया, तो पति भी आ गया है । मनकी सब आशाएं पूरी हो गयी है । तम्बोलनीने चोली खोलकर, अपार यौवनसे भरे गातको निकाला और पतिके साथ बहुत प्रकारसे रंग किया, नयनसे नयन मिलाया । इसे ही रभस आलिंगन कहते है । इसके लिए कबीरका दिल मचला था और उससे भी पूर्व मुनि रामसिंहका । साधक जीव जब ब्रह्मसे मिलता है, तो ऐसे ही अंगसे अंग मिलाकर मिलता है। बिना एक हुए वह रह ही नहीं सकता । तम्बोलनीका यह मिलन रहस्यवादको तुरीयावस्था हैं । परम आनन्द उसीका पर्यायवाची है। वह मिलन देखिए, "चोली खोल तम्बोलनी काव्या गात्र अपार । रंग कीया बहु प्रीयसुं नयन मिलाई तार ॥ ५९॥ " पन्थीगीत यह मंन्दिर दीवान बघीचन्दजी, जयपुरके गुटका नं० २७, वेष्टन नं० ९७३ में निबद्ध है । इसमें केवल छह पद्य हैं । यह भी एक रूपक काव्य है । इसमें प्रचलित कथाका सहारा लेकर रूपककी रचना की गयी है । एक रास्तागीर राहमे चलते-चलते सिंहोके वनमें पहुँच गया। वहीं रास्ता भूल जानेसे वह इधर-उधर भटकने लगा । ऐसी ही अवस्था में उसे, सामने एक मदमत्त हाथी आता हुआ दिखाई दिया। उसका रूप रोद्र था और वह क्रोधमें १. पाता यौवन फाग रिति परम पीया दूरि । रली न पूरी जीय की मरउ विसूरि विसूरि ॥ ४२ ॥ २. कहइ सुनारी पंचमी अंग अपना दाह । हुं तउ बूडी विरहमइ पांउ नाहीं याह ॥ ४५ ॥ हया अंगीठी मूसि जिय मदन सुनार अभंग । कोयला कीया देह का मिल्या सवेइ सुहाग ॥४६॥
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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