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________________ १०२ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि उसने चम्पाकी पंखड़ियोंसे एक नया यदि वह इसे पतिके बिना पहने तो अंगोंको अंगारों-सा प्रति सूखने लगा है, और सींचनेवाला दूर है। हार गूंथा था । भासित हो, "कमलवदन कुमलाइया सूकी सूख बनराइ | विन पीया रइ एक पिन बरस बराबरि जाइ ॥ तन तरवर फल लग्गीया दुइ नारिंग रसपूरि । सुकन लागा विरह-ल सींचनहारा दूरि ॥ चम्पाकेरी पंखडी गूंध्या नवसर हार । जइ इहु पहिरउ पीव बिन लागइ अंग अंगार ॥" पतिके बिना विरहने तम्बोलनीकी चोलीके भीतर घुसकर उसके शरीरको मारा है। उसके पत्ते झड़ गये है और वेलि सूख गयी है। वसन्तकी रात काटना दूभर हो गया है । ग्रीष्मके सन्तप्त दिन कैसे करें, छाया देनेवाला पति परदेश चला गया है। छीपनीके दिलकी पीरको दूसरा जान ही नही सकता। उसके तनरूपी कपड़ेको, विरहरूपी दर्जी दुःखरूपी कतरनीसे, दिन-रात काटता चला जाता है, पूरा ब्यौंत नहीं लेता । विरहने उसके सुखको नष्ट कर, दुःखका संचार किया है, किन्तु एक उपकार भी किया है, जो उसकी देहको जलाकर छार कर दिया । इससे उसको दुःखोसे मुक्ति मिल गयी । कलालीको देहपर मदमाते यौवनको फाग ऋतु बिखरी हुई है । किन्तु पति दूर है, अतः वह किसके साथ १. दूजी कहइ तंबोलनी सुनि चतुराई बात विरहइ मारया पीव बिन चोली भीतरि गात ॥ २४ ॥ पात झंडे सब रूख के बेल गई तन सुक्कि दूभर राति वसंत की गया पीयरा मुक्कि ||२६| तन बाली बिरहउ दहइ परीया 'दुक्ख असेसि ए दिन दूभरि कंउ भरइ छाया प्रीय परदेसि ॥ २८ ॥ २. तीजी छोपनि आखीया भरि दुइ लोचन नीर । दूजा कोई न जानई मेरइ जीयइ की पीर ॥ ३१ ॥ तन कपडा दुख कतरनी दरजी विरहा एह । पूरा ब्यौतं न योतइ दिन-दिन काटइ देह ||३२|| सुख नाठा दुख संचरया, देही करि दहि छार । विरह कीया कंत बिन इम अम्हसु उपगार ॥३६॥
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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