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जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य
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श्रयै नहु संसार सागर जीय बहु दुख पाइयै जिस वा चहुगति फिरथा लोडै सोइ मारगु ध्याइयै तिमुह तारणु देउ भरहंतु सुगुण निजु गाइयै afar 'a' area छोड झंडा मुकति सिउरंग लाइये || ४ || "
२९. छीहल ( वि० सं० १५७५ )
छील सोलहवीं शताब्दी के सामर्थ्यवान् कवि थे । विविध शास्त्र भण्डारोंमे
यत्किचित् भी जीवन
उनकी पाँच रचनाएँ प्राप्त हुई हैं । किन्तु उनमें कविका परिचय निबद्ध नही है । उनपर राजस्थानीका प्रभाव है। अतः यह सिद्ध है कि वे राजस्थानके निवासी थे। उनकी कृतियाँ मुक्तक है । उन्हे आध्यात्मिक भक्तिका निदर्शन कहना चाहिए | उनमें दो तो रूपक ही है । समूची मुक्तक रचनाको रूपकके रूपमे निर्माणको शैली जैनोकी अपनी है ।
पंचसहेली गीत '
इसका निर्माण वि० सं० १५७५, फाल्गुन सुदी १५ को हुआ था । इसमें ६८ पद्य है । मालिन, तम्बोलनी, छीपनी, कलालनी और सुनारिन पाँच सहेलियाँ है । पाँचोंने अपने-अपने प्रियके विरहका वर्णन किया है । वास्तवमे वह परमात्माका ही विरह है । जब प्रिय मिल जाता है, तो वह भी ब्रह्मके मिलन - जैसा ही
पुष्ट होता है । उसकी साधना
है । प्रेम उत्पन्न होकर विरहमे अधूरी नही रह पाती । प्रिय-मिलन होता है। उससे परम आनन्दकी प्राप्ति होती है । यह एक सुन्दर रूपक-काव्य है । इसमें पाँच सहेलियाँ भिन्न-भिन्न जीवोंकी प्रतीक है । उनका प्रिय मिलन ही ब्रह्म-मिलन है । यहाँ रूपकके माध्यम से ब्रह्म-मिलनकी धुन मे विरहजन्य पीड़ा मुख्य है ।
मालिनका पति उसे भरे यौवनमे छोड़कर कहीं चला गया है। उसका दुःख अनन्त हैं । कमल-वदन मुरझा गया है और वनराजि-जैसा शरीर सूख गया है । पिया बिना उसे एक-एक क्षण, एक-एक बरसके बराबर लगता है । जिस शरीररूपी वृक्षपर यौवन-रससे भरे स्तनरूपी दो नारंगी लगे थे, वह विरहकी अग्निमे
१. यह गीत, लूणकरणजी पाण्ड्या मन्दिर, जयपुरके गुटका नं० १४४ में अंकित है । २. संवत् पनर पचहत्तर पूनिम फागुण मास ।
पंच सहेली वरणवी कवि छीहल्ल परगास || पंचसहेली गीत, पद्य ६८, वही गुटका ।