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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि शब्द संसारके अर्थमें लिया गया है। इसमे प्राणीमात्रको संसारसे सजग रहनेके लिए कहा गया है,
"मात पिता सुतसजन सरीरा दुहु सब लोग विराणावे । इयण पंख जिम तरुवर वासे दलहुँ दिशा उडाणावे ॥ विषय स्वास्थ सब जग वंछ करि करि बुधि बिनाणावे।
छोडि समाधि महारस नूपम मधुर विन्दु लपटाणावे ॥" नेमिनाथवसन्तु और नेमीश्वरका बारहमासा ।
बूचराजकी ये दो कृतियां अत्यधिक सुन्दर है। पहलीमे नवयौवना, विरहिणी राजीमतीकी उन मनोदशाओंका चित्रण है, जो नेमिनाथके अकस्मात् वैराग्य लेनेके उपरान्त वसन्त आनेपर बनी थी। दूसरीमें राजीमतीकी विरहावस्थाका वर्णन है।
पतिके पथका अनुसरण करने के लिए राजीमतीने वैराग्य भी ले लिया था। तपस्विनी होनेके उपरन्त नवयौवना राजीमतीका वसन्तको देखकर प्रथम अनुभव हुआ,
"अमृत अंबु लउ मोर के, नेमि जिणु गढ़ गिरनारै म्हारे मनि मधुकरू निह वसइ, संजमु कुसमु मझारै ॥२॥ सखिय वसंत सुहाल रे, दीसइ सोरठ देसौ कोइल कुहकइ, मधुकर सारि सब वणइ पइसो ॥३॥ विवलसिरी यह महकै हरै, मंवरा रुणझुण कारो गावहि गीत स्वरास्वरि, गंध्रव गढ़ गिरनारो ॥४॥"
बूचराजके ८ पद दि० जैन मन्दिर नागदा बूंदी ( राजस्थान ) के गुटका नं० १७९, पत्र १० पर लिखे है। दो पद निम्न प्रकार है
"रंग हो रंग हो रंगु करि जिणवरु ध्याईयै रंग हो रंग होइ सुरंग सिउ मन लाइयै ।। लाईयै यहु मनुरंग इस सिउ अवरंगु पतंगिया धुलि रहइ जिउ मजीठ कपड़े तेव जिण चतुरंगिया ॥ जिवलगनु वस्तर रंग तिवलगु इसहि कान रंगाव हो कवि 'वल्ह' लालचु छोडु झूठा रंगि जिवरु ध्याव हो ॥३॥ रंग हो रंग हो मुकति वरणी मनु लाइयै रंग हो रंग हो भव संसार न आईये