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जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य चेतन पुद्गल ढमाल
यह कृति उपर्युक्त मन्दिरके उसी गुटकेमे पत्र ३२-४४ पर अंकित है । इसमें १३६ पद्य है। उनमें चेतनको पुद्गलकी संगति न करनेकी बात कही गयी है। चेतनको विविध प्रकारसे सावधान कर चिदानन्दको भक्तिकी ओर प्रेरित किया गया है। इस कृतिकी भाषापर अपभ्रंशका अधिक प्रभाव है। अधिकांश शब्दोकी प्रवृत्ति उकारान्त है।
कविने एक पद्यमें लिखा है कि भगवान् जिनेन्द्र इस संसार में दीपकके समान है । इस दीपकके उदित होनेसे मिथ्यारूपी अन्धकार भाग जाता है। इसी दीपकके प्रकाशमे यह जीव संसाररूपी समुद्रको भी तैरकर पार हो सकता है,
"दीपगु इकु सवनि जगि, जिनि दीपा संसारि । जासु उदय सहु मागिया, मिथ्या तिमरु अध्यारु ॥२॥ जिण सासण महि दीवडा, 'वल्ह' पया नवकारु ।
जासु पसाए तुम्हि तिरहु, सागर यहु संसारु ।।३॥" भव-भवमे जिनेन्द्र के पैरोंको सेवाकी याचना करता हुआ भक्त कवि कहता है,
"करि करुणा सुणु वीनती, तिभुवण तारण देव ।
वीर जिणेसर देहि मुगु, जनमि जनमि पद सेव ॥२९॥" चेतन और पुद्गलमें महदन्तर है। चेतन चिरन्तन है और पुद्गल विनश्वर । चेतनमें गति है और पुद्गलमें जड़ता। जैसे फूल मर जाता है और परिमल जीवित रहता है, वैसे ही शरीर नष्ट हो जाता है और चेतन जिन्दा रहता है। इस तथ्यको कोई-कोई ही जानते है,
"फूल मरइ परमलु जीवइ, तिमु जाण सहु कोइ ।
हंसु चलइ काया रहइ किवरु बराबरि होइ ॥८३॥" कवि दृष्टान्त देनेमे निपुण है । जबतक मोती सीपमें रहता है, उसके सभी गुण पलायन कर जाते हैं, इसी भाँति जबतक चेतन जड़के साथ है, उसे दुःख-हीदुःख भोगने पड़ते है,
"जब लगु मोती सीप महि, तब लगु समु गुण जाइ।
जब लगु जीयडा संगि जड, तब लग दूख सहाइ ॥१०५॥" टंडाणा गीत ____ टंडाणा 'टांड' शब्दसे बना है। टांडका अर्थ है व्यापारियोंका चलता हुआ समूह । यह विश्व भी गतिवान् प्राणियोंका समूह ही है, अतः इस गीतमें टंडाणा