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________________ ९८ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि वसन्त उसका दूत है । वह पहलेसे जाकर कामको जीतका वातावरण तैयार करता है। वृक्ष एवं लताएं नया रूप धारण करती हैं। पुष्प विकचित हो जाते है । कोकिल कुहू कुहूकी रट लगाती है। भ्रमर गुंजार करते है । युवतियां शृंगार रचाती है, "वज्यउ नीसाण वसंत पायउ छल्ल कंद सिखिल्लियं । सुंगंध मलया पवण झुल्लिय, अंब कोइल्ल कुल्लियं । रुणझुणिय केवइ कलिय महुवर सुतर पत्तिह छाइयं । गावंति गीय बजंति वीणा तरुणि पाइक आइयं ॥३७॥" सन्तोषजयतिलक ___ इसकी एक हस्तलिखित प्रति दि० जैन मन्दिर नागदा, बूंदी ( राजस्थान) के गुटका संख्या १७९ मे पत्र १७ से ३० तक संकलित है । इसमें १२३ पद्य है । गाथा, षट्पद, दोहा, रड, पद्धणी, अडिल्ल, रासा, चंदायणु, गीतिका, त्रोटक, रंगिक्का आदि छन्दोंका प्रयोग हुमा है। इस काव्यकी रचना हिसार नगरके मध्य, वि० सं० १५९१, भाद्रपद सुदी ५, शुक्रवार, स्वाति नक्षत्र, वृष लग्नमें हुई थी। इसकी भाषा प्राचीन हिन्दी है। उसपर राजस्थानोका प्रभाव है। इसमे कविने लोभ, मोह और रोषपर लिखते हुए सन्तोषकी महत्ता स्थापित की है। इसका अन्तिम पद 'रड' छन्दमें है, "पढहिं जे के सुद माएहि जे सिक्खहिं सुद्ध लिखाव, सुद ध्यान जे सुणहिं मनु धरि । ते उत्तिम नारि नर अमर सुक्ख भोगवहिं बहु प्यारे ॥ यहु संतोषह जयतिलय जंपिउ 'वहि' समाइ । मंगलु चौविह संघ कहु करइ वीरु जिणराइ ॥१२३॥" लोभके प्रभावको कहते हुए कविने लिखा है कि वह मुनियों तकको नहीं छोड़ता, "वण मंझि मुनीसर जे वसहि सिव रमणि लोभु तिन हियइ माहि । इकि लोमि लाग्गि पर भूमि जाहि पर करहि सेव जीउ जीउ मणहि ॥" १. संतोषहु जयतिलउ जंपिउ हिसार नयर मंझ में जो सुगहि भविय इक्क मन, ते पावहिं वंछिय सुक्ख ॥१२० ॥ संवत् पनरइ इक्याण, भद्दवि सिय पाक्खि पंचमी दिवसे सुक्क वारि स्वाति वृखे, जेउ तह जाणि वंभना मेण ॥१२॥ सन्तोषजयतिलककी नागदावाली हस्तलिखित प्रति ।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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