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जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य
वह सोचता है कि इस बार उबरनेपर जिनेन्द्रकी भक्ति करूंगा । जन्म लेता है । संसारकी हवा लगती है, तब वह मूर्ख सब कुछ भूल जाता है ।
"उदर उदधि में दस मासाह रह्यौ । fisोषि बहु संकटि सह्यौ ।
बहु संकट उदर अंतरि चितवै चिंता घणी । उबरौ अबकी बार जै हु भगति करिस्यो जिणतणी । ऐसोल संकट पडिहि बोलै बहुडि जगत जामण लयो । संसार की जब वहति लागि मूढ सत्र बीसरि गयो || १ || "
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बालकका जन्म हुआ। जमीनपर लोटता रहा। जब भूख लगी, माँका स्तन रोकर पी लिया । मुखसे लार चूनी रही । लक्ष्य - अलक्ष्य और भक्ष्याभक्ष्यमे कोई अन्तर नही किया । बालपन खो दिया, जिनवरकी भक्ति नही की। फिर यौवन आया, उसके नशेमे चारों ओर घूमा, परधन और परतियको ताकता फिरा । ऐसा करनेमे उसे आनन्द आया । किन्तु वह मूर्ख यह न समझ सका कि यह 'विषफल' है, 'अमीफल' तो जिनकी सेवा है। परब्रह्म विसार देनेसे काम, माया, मोहने उसपर अधिकार कर लिया | भावपूर्वक जिनवरकी पूजा नहीं की, यौवन व्यर्थ ही खो दिया,
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"ओवन मातो नर चिहुँ दिसि ममै, परधन परतिय ऊपरि मनखै । मनखै परधन देखि परतिय चित ठाइ नरषए ।
छंडे अमीफल सेव जिनकी विषय विषहल चाखए ।
काम माया मोह व्याप्यो परब्रह्म विसारियो ।
पुजियो न जिनवर मावसेथी वृथा जीवन हारीयौ ॥३॥"
बैरी बुढापा आ गया । सुधि-बुधि नष्ट होने लगी । कानोंने सुनना बन्द कर दिया । नेत्रोकी ज्योति घुंबली पड़ गयी । किन्तु जीवनके प्रति मोह और अधिक बढ़ गया । छीलका कथन है कि हे नर ! तू भ्रममें पड़कर भटकता क्यों फिर रहा है । युक्तिपूर्वक जिनेन्द्रकी भक्ति कर । तू मुक्तिलीलाका आनन्द ले सकेगा,
"जरा बुढ़ापा बैरी आइयो, सुधि-बुधि नाठी जब पछिताइयो । पछिताइयो जब सुधि नाठी, श्रवण सबद न बूझए ।
जीवण कारणि करै लालच, नयन मग न न सूझर ।
अब कहै छोहल सुण रे नर, भ्रम भूले कांई फिरौ । करि भगति जिन की जुगति स्यौ, त्यो मुकति लीलइ वरौ ॥४॥ "