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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि पंचेन्द्रियवेलि ___ यह कृति दि० जैन मन्दिर, पाटौडी, जयपुरके गुटका नं० ६५, पृ० ३०७ पर अंकित है। इसमे भी मनको इन्द्रियोंकी संगतिसे हटाकर जिनेन्द्र भक्तिको ओर उन्मुख किया गया है । जैनोंका वेलि-साहित्य विशाल है। वेलि शब्द संस्कृतके 'वल्ली' और प्राकृतके 'वैल्लि' से समुद्भूत हुआ है। वाङ्मयको उद्यान मानकर, उसकी प्रवृत्तियोंको वृक्ष अथवा वृक्षांगवाची नामोसे अभिहित किया जाता रहा है । जैन वेलि-साहित्य तीन प्रकारका होता है : ऐतिहासिक, कथानकवाची, और उपदेशात्मक । प्रस्तुत कृतिका स्वर तीसरे प्रकारका है। अन्तमे जिनेन्द्रभक्तिको ओर मोड़ देनेके कारण उसको भक्ति-परकता भी स्पष्ट ही है ।
इसमें चार पद्य है। मनको सम्बोधन करके लिखा गया है। मन चंचल है, भटकनेकी उसकी आदत है। उसे आराध्यकी भक्तिकी ओर मोड़नेका काम भक्त कवि करते रहे है। कबीरका 'चेतावणी को अंग' और तुलसीदासकी "विनय-पत्रिका' इस दिशाकी महत्त्वपूर्ण कड़ियाँ है। जैन और बौद्ध कवियोंका तो उसपर परम्परागत अधिकार ही है। यहां छीहलने लिखा है कि यदि घट पवित्र नहीं है, तो जप, तप और तीर्थ सभी कुछ व्यर्थ है। पहले घटका पवित्र' होना आवश्यक है । उसका उपाय है जिनवरका चिन्तवन । उससे भव-समुद्र तिरा जा सकता है,
"कलि-विष-कोटि विनासौ जिनवर नाम जु लाये । जै घट निरमल नाही का जप-तप तीर्थ कराये । का जप तप तीर्थ कराये जै परद्रोह न छंदो। लंपट इन्द्री लघु मिथ्याती जन्म अपणो भंटी। छीहल कहै सुरागै रे नर बावरे सीख सयाणी करीए ।
चितवन परम ब्रह्म कीजे तो भव दुह सायर तरीए ॥४॥" नाम बावनी
इसमें ५० पद्य है। यह एक उत्तम काव्यका निदर्शन है। इसमे विविध विषयोंपर तल्लीन होकर लिखा गया है। अन्तमें जिनेन्द्रके नाम-माहात्म्यका उल्लेख है। उन पद्योंकी विनयपत्रिकाके पदोंसे तुलना की जा सकती है। यह कृति मन्दिर ठोलियान, जयपुरके गुटका नं० १२५ में संकलित है । इस गुटकेका लेखन-काल वि० सं० १७१२, ज्येष्ठ सुदी २ दिया हुआ है । 'नामबावनी'का निर्माण वि० सं० १५८४ में हुआ था।