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जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य ३०. भट्टारक रत्नकीर्ति (वि० स० १६००-१६५६ )
रत्नकोत्तिके पिताका नाम सेठ देवीदास और माताका नाम सहजलदे था। वे जैनोकी हुँबड जातिमे उत्पन्न हुए थे। बागड प्रदेशका घोषानगर उनका जन्मस्थान था । बुद्धि तीव्र थी। बचपनसे ही सिद्ध होने लगा था कि बालक होनहार है । एक दिन वहाँ भट्टारक अभयनन्दि आये । बालककी प्रतिभाने उन्हे प्रभावित किया। उन्होंने मां-बापकी स्वीकृतिसे उसे शिष्यरूपमे स्वीकार कर लिया।
भट्टारक अभयनन्दि अपने युगके ख्यातिप्राप्त व्यक्ति थे। वे एक ओर सिद्धान्त, काव्य, ज्योतिष, व्याकरण, आयुर्वेद एवं मन्त्र-विद्यामे पारंगत थे, तो दूसरी ओर व्यवहारकुशल तथा प्रभावशाली भी थे । रत्नकीत्ति उन्हींके पास रहे, अध्ययन किया। कतिपय वर्षोंमें ही वे भी प्रामाणिक विद्वान् माने जाने लगे। व्युत्पन्न तो थे ही। अभयनन्दिने उन्हें अपना पट्टशिष्य घोषित किया, और वि० सं० १६४३ मे भट्टारक-पदपर अभिषिक्त कर दिया। वहां वे संवत् १६५६ तक बने रहे । कुछ पहलेसे उनका रचना-काल माना जा सकता है।
यदि कोई व्यक्ति विद्वान् हो, चरित्रवान् हो, सुन्दर हो और लक्ष्मी उसके चरणों तले भूलुण्ठित होती रहती हो, तो वह अतिमानव ही कहलायेगा। रत्नकोत्तिमे ये सभी गुण थे। सौन्दर्यके क्षेत्रमें शायद वे अपने युगके सबसे अधिक सुन्दर युवक ये । वे दूसरे उदयन ही थे। दोक्षा, संयमश्री, मुक्तिलक्ष्मी आदि अनेक कुमारियोंके साथ उनका विवाह हुआ था। उनके सौन्दर्यके गीत उनके शिष्योंने गाये है । कवि गणेशकी कतिपय पंक्तियां है, "अरध शशिसम सोहे शुम माल रे।
वदन कमल शुभ नयन विशाल रे॥ दशन दाडिम सम रसना रसाल रे।
अधर बिम्बाफल विजित प्रवाल रे॥ कंठ कम्बूसम रेखात्रय राजे रे ।
कर किसलय-सम नख छवि छाजे रे ॥" उनका शिष्य-परिवार पर्याप्त बड़ा था। एक शिष्या वीरमतिने वि० सं०
१. बलात्कारगणकी सूरतशाखाकी ही एक परम्परा भ० लक्ष्मीचन्द्रके शिष्य अभय
चन्द्रसे प्रारम्भ हुई। उनके पट्टशिष्य थे अभयनन्दि। अभयनन्दिके शिष्य थे रत्नीकीतिं । भट्टारक सम्प्रदाय, जीवराजग्रन्थमाला, शोलापुर, पृष्ठ २००।