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हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि १६६२ मे भगवान् महावीरकी मूर्ति प्रतिष्ठित करायी थी।' शिष्य जयसागरने बलसाढ़ नगरमे हुए प्रतिष्ठा-महोत्सवका वर्णन किया है। उसमे भट्टारक रत्नकोत्ति अपने संघसहित शामिल हुए थे। शिष्योमे कुमुदचन्द्र सर्वश्रेष्ठ थे । उनकी प्रत्येक रचनामें गुरु रत्नकीतिका स्मरण किया गया है। उन्हीको वि० सं० १६५६ मे अपने पट्टपर प्रतिष्ठित कर रत्नकीति नितान्त उदासीन हो गये थे। उनकी रचनाएँ ___ भट्टारक-पदसे अनेक उत्तरदायित्व सम्बद्ध थे। उनका ठोक निर्वाह करनेके लिए कठोर हृदयको आवश्यकता थी। अधिकाश भट्टारक ऐसे ही हो जाते थे । किन्तु रत्नकोत्तिका हृदय सरस था। वे जन्मजात कवि थे। उनका मर्म सदैव द्रवणशील रहता था। उनके रचे ३८ पद इस कथनके साक्षी है। राजुलने बहुत हटका, किन्तु निष्ठुर नेत्र नहीं माने। हृदय फाड़कर बह चले, उस गिरिकी ओर जानेको आकाक्षा थी, जहाँ नेमीश्वर रहते थे। नहीं तो फिर और क्या करते । यहाँ तो कुछ भी अच्छा नहीं लगता। रजनी कभी समाप्त ही नही होती,
"वरज्यो न माने नयन निठोर । सुमिरि-सुमिरि गुन भये सजल धन, उमंगि चले मति फोर ।। चंचल चपल रहत नहिं रोके, न मानत जु निहोर । नित उठि चाहत गिरि को मारग, जे ही विधि चन्द्रचकोर ।। तन मन धन यौवन नहीं भावत, रजनी न जावत भोर ।
रतनकीरति प्रभु वेग मिलो, तुम मेरे मन के घोर ॥" नेमिनाथफागु ___ इसमे ५१ पद्य है। इसकी रचना हांसोट नगरमे हुई थी। इसका भी सम्बन्ध नेमीश्वर-राजुलके प्रसिद्ध कथानकसे है। दिगम्बर कवियोंने बहुत कम १, सं० १६६२ वर्षे वैशाख वदो २, शुभ दिने श्रीमूलसंघे सरस्वतीगच्छे
बलात्कारगणे श्रीकुन्दकुन्दाचार्यान्वये भ० अभयचन्द्रदेवाः तत्पट्टे भ० अभयनन्द तच्छिष्य आचार्य श्रीरत्नकीति तस्य शिष्याणी बाई बीरमती नित्यं प्रणमति श्रीमहावीरम् ।
वही, लेखांक ५२२, पृष्ठ १६३ । २. नमिबिलास उल्हासस्युं, जे गास्ये नर-नारि ।
रत्नकीरति सूरीवर कहे, ते लहे सौख्य अपार ।। हांसोट मांहि रचना रची, फाग राग केदार । श्री जिन जुग धन जाणीये, सारदा वर दातार ॥ नेमिनाथफागुकी हस्तलिखित प्रति, पद्य ५१, श्री यश-कीति-सरस्वती-भवन, ऋषभदेव ।