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जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य
फागुओंकी रचना की है। उनमें भट्टारक ज्ञानभूपणका 'आदीश्वरफागु' सबसे बड़ा है। पिछले पृष्ठोंपर इसका उल्लेख हो चुका है। भट्टारक विद्याभूषणके 'नेमिनाथफागु' मे भी २५१ पद्य है। तीसरा ब्रह्मरायमल्ल रचित 'नेमिनाथफागु' है । यह एक छोटी कृति है। प्रस्तुत रचना चौथा फागु है। इसमे राजुलकी सुन्दरताका एक चित्र इस प्रकार है,
"चन्द्रवदनी मृगलोचनी मोचनी खंजन मीन । वासग जीत्यो वेणिई, श्रेणिय मधुकर दीन ॥ युगल गल दाये शशि, उपमा नासा कीर । अधर विद्रुम सम उपमा, दंतनू निर्मल नीर ॥ चिबुक कमल पर षट्पद, आनंद करे सुधापान ।
ग्रीवा सुन्दर सोमती, कम्बु कपोलने बान ॥" नेमिवारहमासा ___यह एक लघु कृति है। इसमें केवल १२ त्रोटक छन्द है। विरवर्णनके अन्तर्गत 'बारहमासा' आवश्यक तत्त्व माना जाता था। बारह महीनोमे विरहिणीको क्या दशा होती थी, यह दिखाना ही अभीष्ट रहता था। जायसीके 'नागमतीविरहवर्णन' मे भी 'बारहमासा' शामिल है। कविने 'ज्येष्ठमास' का वर्णन किया है। इस मास में 'काम' अधिकाधिक सता उठता है । वह किसी उपायसे उपशम नहीं होता। उसकी ऐसी बेचैनी रहती है कि न तो भोजन अच्छा लगता है और न आभूषण ही सुहाते है,
"आ जेष्ठ मासे जग जलहरनो उमाहरे । काई बाप रे वाय विरही किम रहे रे ॥ आररते भारत उपजे अंगरे। अनंग रे संतापे दुख कहे रे ॥ केहने कहे किम रहे कामिनी आरति अगाल । चारु चंदन चीर चिंते माल जाणे ख्याल ॥ कपूर केसर केलि कुंकम केवड़ा उपाय।
कमल दल जल छांटणा वन रिपु जाणे वाय ।। १. इसकी भी हस्तलिखित प्रति उपयुक्त भवनमें मौजूद है। उसकी अन्तिम प्रशस्ति है,
"लि० संवत् १६१४ वर्षे कात्तिकमासे शुक्ल पक्षे चतुर्थ्या तिथौ भौम दिने लिखितमिदं पुस्तक, जयतु । श्रीकाष्ठासंघे नंदीतटगच्छे विद्यागणे भट्टारक
श्रीविद्याभूषण तत् शिष्य ब्रह्मश्री जयपाल पठनार्थ तथा परोपकारार्थं भवतु।" २. इसकी हस्तलिखित प्रति, दि० जैनमन्दिर, संघीजी, जयपुरके ज्ञानभएडारमें है।