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भूमिका
चन्द्रका 'सीताचरित्र' एक ऐसी कृति है, जो भाव और भाषा दोनों ही दृष्टियोंसे उत्कृष्ट कही जा सकती है। उसपर स्वयम्भूका प्रभाव है। इसकी रचना १७वीं शतोमे हुई थी। पं० भगवतीदासने 'बृहत्सीतासतु' (वि० सं० १६८७ ) की रचना की। पं० भगवतीदास जन्मजात कवि थे। उनके काव्यमें स्वाभाविकता है। सीताके हृदयके स्पन्दनोंका सही चित्र 'बृहत्सीतासतु'में उकेरा गया है। ब्रह्म जयसागरका 'सीताहरण' (वि० सं० १७३२) एक महत्त्वपूर्ण रचना है। वह एक खण्ड-काव्य है। उसके पढनेसे मन विमुग्ध हो उठता है। ये तीनों काव्य सीताको केन्द्र मानकर चले। इनमे नारी हृदयकी विविध प्रवृत्तियोंका अंकन है। इनके अतिरिक्त भट्टारक महीचन्द्रका 'लव-कुश छप्पय' ( १७वी शताब्दी) भी राम-काव्यसे सम्बन्धित है। इसमें केवल छप्पन छप्पय है। यह एक खण्ड-काव्य है। ब्रह्म रायमल्लका 'हनुमच्चरित्र' एक सुन्दर कृति है। इसकी रचना वि० सं० १६१६में हुई थी। जैन काव्योमें वानर एक जाति मानी गयी है। वे मनुष्य थे, बन्दर नहीं। उनके पूंछ नहीं थी। हनुमान्को रामके सहायक और भक्तके रूपमें अंकित किया गया है।
जैन-परम्परामे २२वें तीर्थंकर अरिष्टनेमिके साथ वासुदेव कृष्णका चरित्र जुड़ा हुआ है। कृष्ण नेमीश्वरसे उम्रमें बड़े थे। उनके चचेरे भाई थे। वे ही राज्यके स्वामी थे। नेमीश्वरने विवाह-द्वारपर दीक्षा ले ली थी। शादी नहीं की। त्रिलोकसुन्दरी राजीमतीने भी फिर विवाह नहीं किया । नेमिनाथ और राजीमतीको लेकर अनेक रचनाएँ मध्ययुगमे हुई । गीतिकाव्य अधिक रचे गये। विनोदीलाल ( १७५० ) की रचनाएँ विशिष्ट हैं। उनकी कृतियोंमे प्रसाद गुण तो है ही, चित्राकन भी है। एक-एक चित्र हृदयको छूता है। भवानीदास (१७९१ ) के गीतोंमें भावुकता है। उनमें ऐसी सुगन्ध है, जो कभी मिटती नहीं। नेमिराजुलको लेकर अनेक 'फागु' और 'वेलि' काव्य भी बहुत रचे गये। प्रबन्धकाव्य भी रचे गये, किन्तु उनकी संख्या अल्प ही है। कवि भाऊका 'नेमीश्वररास' अभी उपलब्ध हुआ है। इसमे १५५ पद्य है। उनमे विवाहके लिए सजी राजुल और फिर विरह-विदग्धा राजुलके सजीव चित्र है। अन्य काव्योंका विवेचन इस ग्रन्थके पहले अध्यायमे हुआ है।
१. ब्रह्मज्ञानसागरका लिखा हुआ हनुमच्चरित्ररास (१६३०) भी एक प्रसिद्ध कृति है।
इसकी हस्तलिखित प्रति उदयपुरके श्री सम्भवनाथके मन्दिर में मौजूद है। -२. 'सीताशीलपताका गुणबेलि' आचार्य जयकीर्तिकी रचना है। इसकी हस्तलिखित
प्रतिपर इसका रचनाकाल वि० सं० १६७४ दिया हुआ है।