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हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि
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प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंशमे शतशः जैन स्तुति स्तोत्रोंकी रचना हुई । विक्रमकी प्रथम शताब्दीसे यह प्रवाह सतत चलता रहा । इन स्तोत्रोंकी कोई उपमा नहीं। उनमें यदि एक और भक्ति रसके निर्झर है, तो दूसरी ओर काव्यसौष्ठवकी मन्दाकिनी । भक्त हृदयोकी वे पुकारें जैसे आज भी जीवित हों । मुक्तक काव्योंका यह रूप मध्यकालीन हिन्दीके जैन कवियोंने पदोंके रूपमें प्रतिष्ठित किया | हिन्दीका जैन पद काव्य एक पृथक् खोजका विषय है । अनेक कवियों ने पदोंकी रचना की । नयी-नयी राग-रागिनियोके परिवेशमे रचे गये उन पदोंकी अनूठी छटा है । उनमे भी 'भूधररास' - जैसा प्रसाद गुण कही उपलब्ध नही होता । सूरदासके साथ उनके पद- काव्यकी तुलना मैने की है । अच्छा हो यदि कोई अनुसन्धित्सु इसे अपनी शोधका विषय बनाये ।
हिन्दीके जैन प्रबन्ध काव्योके भक्तिपरक पहलुका मैने विवेचन किया है । उनमे राम और कृष्ण कथाएँ भी निबद्ध है । इसमे रामकाव्यके पीछे उसकी अपनी एक शानदार परम्परा थी। विमलसूरि (विक्रमकी पहली शती) का 'पउमचरिय' ( प्राकृत) एक सशक्त रचना मानी जाती है । विमलसूरिकी सबसे बड़ी देन है रामायणके पात्रोंका मानवीकरण । वाल्मीकिने तो उन्हे दिव्यरूप देकर इस सृष्टिसे दूर, बहुत दूर कर दिया था। राक्षस और वानर भय और आश्चर्यके प्रतीक बना दिये गये थे । विमलसूरिने उन्हें दूसरा रूप दिया, जिसपर इस दुनियाके लोग विश्वास कर सकें। दूसरी कृति है रविषेण (६७८ ई० ) का पद्मचरित्र । यह अत्यधिक लोकप्रिय बना । आज भी जैनोके घर-घरमें पढा जाता है। रवि
ने स्पष्ट ही विमलसूरिका ऋण स्वीकार किया है। तीसरी रचना 'पउमचरिउ ' है । इसके रचयिता थे महाकवि स्वयम्भू । वे ईसाकी आठवी शताब्दी में हुए है । यह कृति भावोन्मेष और काव्य-सौष्ठवकी दृष्टिसे उत्तम है । स्थान-स्थानपर प्राकृत दृश्य बिखरे हुए है। सीताका शील-सना सौन्दर्य अप्रतिम है । वैसा रूप सिवा तुलसीदासके अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता । चौथी कृति संघदासगणीका 'वसुदेवहिण्डी' (६०९ ई० ) है । इसमे सीताको मन्दोदरीकी पुत्री माना गया है । आगे चलकर गुणभद्र ने अपने उत्तरपुराण (९वीं शती ईसवी) में इस मान्यताको पुष्ट किया । गुणभद्र एक सामर्थ्यवान् कवि थे । छठो रचना है पुष्पदन्तका महापुराण | उन्होंने गुणभद्रका अनुकरण किया, किन्तु उनका काव्य-सौष्ठव गुणसे आगे है । 'एक माने हुए कवि थे ।
मध्यकालीन हिन्दीमें, रविषेणके पद्मपुराणके अनुवाद बहुत रचे गये । वे केवल अनुवाद थे । उनमे न मौलिकता है और न काव्य-सौन्दर्य । केवल राम