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भूमिका
मध्यकालीन जैन कवियोंने ब्रह्मके 'एकानेक'वाले रूपके गीत गाये। सबसे अधिक बनारसीदासने लिखा है कि नदीका प्रवाह तो एक हो है; किन्तु नीरकी ढरनि अनेक भाँतिकी होती है। वैसे ही आत्माका स्वरूप एक ही है, किन्तु पुद्गलके सम्भोगसे वह विभिन्न रूप धारण करता है। एक ही अग्नि तृण, काठ, बाँस, आरने और अन्य इंधन डालनेसे नाना आकृति धारण करती है, वैसे ही यह जीव नव तत्त्वमे बहुभेषी दिखाई देता है। उन्होने लिखा,
"देखु सखी यह ब्रह्म विराजित, याको दसा सब याही को सोहै। एक में अनेक अनेकौ एक, दुंदु लिये दुविधा मह दो हैं। आपु संमार लखै अपनौ पद, आपु विसारि कै आपुहि मो है। व्यापक रूप यहै घट अन्तर, ग्यान में कोन अज्ञान में को है।"
महात्मा आनन्दधनने कुण्डल और कनकका प्रसिद्ध दृष्टान्त देते हुए लिखा कि कुण्डल आदि पर्यायोमे अनेकरूपता होते हुए भी स्वर्णकी दृष्टि से एकता है । इसो प्रकार जल और तरंग, माटी और उसके बरतन, रविकिरण और उससे भासित अनेक वस्तु ब्रह्मके 'एकानेक' स्वभावको प्रकट करती है ।
सन्तकान्यकी अनेक प्रवृत्तियां जो अपभ्रंश और इससे भी पूर्ववर्ती प्राकृत ग्रन्थों में दिखाई देती हैं, उन सबके सांगोपांग विवेचनका यहाँ अवसर नहीं है । इतना स्पष्ट हो चुका कि 'निगुण-काव्य'के मूल स्रोतोंमें एक जैनधारा भी थी।मध्यकालीन हिन्दी जैन-काव्यको वह विरासतके रूपमें मिला था। इस युगके अनेक जैन कवि ऐसे हुए जो ख्यातिप्राप्त थे और सामर्थ्यवान भी। मैंने उनका यथास्थान उल्लेख किया है। उनकी निर्गुण सन्तोंसे तुलना अन्तिम अध्यायमे की गयी है। जहांतक हिन्दीको सगुण काव्यधाराका सम्बन्ध है वह मध्यकालीन जैन हिन्दी कवियोके तीर्थंकरभक्तिके रूपमें प्राप्त हुई। इस भक्तिका विशद विवेचन 'जैन भक्ति-काव्यकी पृष्ठिभूमि के दूसरे अध्यायमें हो चुका है। तीर्थकरका जन्म होता है, पालन-पोषण, शिक्षा-दीक्षा, राज्य-संचालन आदि कार्य परम्परानुमोदितरूपमें ही चलते हैं । वह स्वयं तप और ध्यानके द्वारा धर्मका प्रवर्तन करता है। उसकी आत्मा विशुद्धतम हो जाती है। आयुकर्मके क्षीण होनेपर उनका सम्बन्ध अन्तिम शरीरसे भी छूट जाता है। वह सिद्ध हो जाता है, जिसके न वर्ष होता है, न गन्ध, न रस, न शब्द, न स्पर्श, न जन्म और न मरण । यही है निर्वाण और निःसंग। तीर्थंकरको सगुण और सिद्धको निर्गुण ब्रह्म कहा जा सकता है। एक ही जीव तोर्थकंर और सिद्ध दोनों हो हो सकता है । अतः उनका नितान्त विभाजन सम्भव नहीं है ।