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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि निष्कल ब्रह्मके विषयमे लिख चुके थे। योगीन्द्रने शरीरके सान्निध्यकी अपेक्षा ब्रह्मको साकार कहा, उसे ही 'पंचविघशरीररहितः' लिखकर निराकार भी माना । उनका ब्रह्म देहमें बसते हुए भी देहसे अस्पर्य है, जसु अब्मंतरि जगु बसइ, जग अब्मंतरि जो जि।' मुनि रामसिंहने भी दोहापाहुडमे लिखा है, 'तिहुयणि दीसह देउ जिण, जिणवरि तिहुवणु एउ।' जब वे ब्रह्माको संसारमें बसा बताते है, तो द्वैतकी बात कहते है और जब संसारको ब्रह्ममे बताते है; तो अद्वैतकी चर्चा करते है। वे द्वैतको मानते है और अद्वैतको भी । उनका यह 'द्वैताद्वैत' कबीरकी मस्तीमे स्पष्ट झलकता है। कबीर न द्वैतके घेरेमे बंधनेवाले थे और न अद्वैतके।
यह अनेकान्तात्मक प्रवृत्ति मध्यकालीन जैन हिन्दी-काव्यमे अधिकसे अधिक देखी जाती है । वहां एक ही ब्रह्मके भावाभाव, विरोधाविरोध, गुप्तागुप्त, भिन्नाभिन्न, एकानेक, व्याप्ताव्याप्त, मूर्त्तामूर्त आदि अनेक रूप दृष्टिगोचर होते हैं । उनका विवेचन दार्शनिक न होकर अनुभूतिपरक है। उनमें चिन्मयता है और हृदयको विभोर बना देनेवाली शक्ति भी। ब्रह्मके साकार और निराकार रूपको लेकर. एक बार गरु-शिष्यमें रोचक वार्तालाप हुआ। शिष्यने पछा. "निराकार जो ब्रह्म कहावै, सो साकार नाम क्यों पावे । 'ज्ञेयाकार ज्ञान जब ताई, पूरन ब्रह्म नाहिं तव ताई।' प्रश्न महत्त्वपूर्ण है। जो ब्रह्म निराकार है, वह साकार कैसे कहला सकता है। और ज्ञान जबतक 'ज्ञेयाकार है, पूर्ण ब्रह्म नही हो पाता । आचार्यने उत्तर देते हुए कहा, 'जैसे चन्द्रकिरण प्रकट होकर भूमिको श्वेत बना देती है, किन्तु कभी भूमि-सी नहीं होती, ज्योति-सी ही रहती है । ठीक वैसे ही ज्ञानशक्ति हेयोपादेय दोनों प्रकारके पदार्थोंको प्रकाशित करती है और 'ज्ञेयाकार-सी दिखाई देती है। किन्तु कभी-भी ज्ञेयको ग्रहण नहीं करती। ज्ञेयाकार-सी दिखाई देती है, अतः जेयपदार्थकी दृष्टिसे वह साकार कहलाती है, शुद्धरूपसे निराकार है ही।' आत्मस्वरूपके निरूपणकी यह पद्धति 'अध्यात्म बारह खड़ी में निखर उठी है,
"निराकृतो च साकृतो विशेष भाव देव जो। रमापती जिनाधिपो शिवाधिपो अमेव जो॥ साकारो नाकार तू नाकारो साकार । दोय रूप राजे प्रभू एक रूप अविकार ॥ द्वै उपयोग जु तू धेरै साकारो निरधार । सही निराधारो तुही पुरिषाकार विथार ।"