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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि "मूरति श्री जिनदेव की मेरे नैनन मांझ बसी जी। अद्भुत रूप अनोपम है छवि राग दोष न तनक सी ॥१॥ कोटि मदन वारूं या छवि पर निरखि निरखि आनन्द झर बरसी। जगजीवन प्रभुकी सुनि वाणी सुरति मुकति मगदरसी ॥२॥" भगवान्की 'समतारस भीनी छवि' देखकर भक्तको परम आनन्द मिला। उसके भव-भवके पाप कट गये और ज्ञान-भानुका प्रकाश प्राप्त हो गया । वह पद इस भांति है,
"प्रभु जी श्राजि मैं सुख पायो । अधनाशन छवि समतारस मोनीसो लखि मैं हरषायो ॥प्रभुजी०॥१॥ भव-मवके मुझि पाप कटे हैं, ज्ञान मान दरसायो ।॥प्रभुजी०॥२॥ जगजीवन के माग जगे हैं, तुम पद सीस नवायो ॥प्रभुजी०॥३॥"
भगवानका विरद है 'दीनबन्धु' और दीनबन्धु भी बिना प्रयोजनके । भक्तका निवेदन है कि उस विरदका निर्वाह करो,
"जामण मरण मिटावी जी, महाराज म्हारो जामण मरण ॥टेक॥ भ्रमत फिरयो चहुँगति दुख पायो सो ही चाल छुड़ावो जीजामण०१॥ बिनहीं प्रयोजन दीनबन्धु तुम सो ही विरद निवाहो जी ॥जामण० ॥२॥
जगजीवन प्रभु तुम सुखदायक, मोकू शिवसुख द्यावो जी॥जामण०॥३॥" भक्त ऐसे सतगुरुकी बलिहारी जाता है, जो ध्यानस्थ होकर अलखसे लो लगाये रहता है।
"ऐसा सतगुरु की बलिहारी ॥टेक॥ बड़ उजाड़ में बैठक जिनकी पलक न एक बिडारी । मोह महा भरि जीते पक में लागी अलख सू तारी॥ऐसा०॥१॥
५९. पाण्डे हेमराज (वि० सं० १७०३-१७३०) ___ पाण्डे हेमराज जयपुर राज्यान्तर्गत सांगानेरमे उत्पन्न हुए थे, किन्तु किसी कारणवश कामागढ़ जाकर रहने लगे थे। वहां कीर्तिसिंह नामका राजा राज्य
१. तेरहपन्थी मन्दिर, जयपुर, पदसंग्रह ६४६, पत्र ६१ । २. मन्दिर तेरहपन्थी, जयपुर, पदसंग्रह ६४६, पत्र ६३-६४ । ३. वही, पत्र ६०॥ ४. वही, पत्र ६२।