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जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य
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उनका रचनाकाल अठारहवी शताब्दीका प्रथम पाद मानना चाहिए । उन्होने संवत् १७०१ मे 'बनारसी विलास' का संग्रह किया था । जगजीवनका व्यक्तित्व असाधारण था । उनकी प्रेरणासे ही अनेकानेक कवियोंने अनुपम साहित्यका सृजन किया । उनकी प्रेरणा एक जादू-सा होता था । पण्डित होरानन्दजी केवल दो माह पंचास्तिकायका अनुवाद कर सके, वह केवल इन्हीकी प्रेरणाका फल था । उस समय श्री जगजीवन आगरेकी साहित्यिक गतिविधियोंके केन्द्रसे हो रहे थे । वे रूपवान्, पवित्र और धन-धान्यसे युक्त थे । समय पाकर उनके हृदयमें यथार्थ धर्मका भाव उदित हुआ । फिर तो उन्हें रात और दिन ज्ञान मण्डलीमें ही चैन मिलने लगा । इस मण्डलीका प्रधान उन्हीको कहना चाहिए ।
'एकीभाव स्तोत्र' मे भगवान्की भक्तिका स्वर ही प्रबल है । कविने एक पद्यमे लिखा है कि जिनेन्द्रदेव सकल लोकके भगवान् है और बिना प्रयोजनके बन्धु है । उनमे सब पदार्थ आभासित होते रहते है और विलास अबन्ध रूपसे वास करते हैं,
" सकल लोक का तूं भगवान, बिना प्रयोजन बन्धु समान । सकल पदारथ मासक भास, तो मैं वसै घबन्ध विलास ॥ "
कविका कथन है कि जिसके हृदयमे भगवान् जिनेन्द्र देव विराजमान है, उसके लिए अब किसी उपकारकी आवश्यकता नही है | उसने आत्मारूपी निधि प्राप्त कर लो है, जिसकी तुलना में अन्य कोई निधि आ ही नहीं सकती । वह अनुपम और अतुल है,
पद
" जाके हिये कमल जिनदेव, ध्यानाहूत विराजित एव । ताकै कौन रह्यो उपगार, निज आतम निधि पाई सार ॥
"
जगजीवन के पद अनेक शास्त्र भण्डारोंको हस्तलिखित प्रतियोंमे बिखरे पड़े है । जयपुरके तेरहपन्थी मन्दिरमे सबसे अधिक हैं। मैने महावीरजी ( अतिशय क्षेत्र ), अजमेर और बड़ोतके शास्त्र भण्डारोंमें भी उनके पद देखे है । उनके पदों भक्ति और आध्यात्मिकताका समन्वय हुआ है । भक्तके नैनोंमे बसे भगवान्के रूपकी एक झलक देखिए,
१. सुन्दर सुभग रूप अभिराम परम पुनीत घरम धन धाम ॥
काल-लबधि कारन रस पाइ, जग्यो जथारथ अनुभौ आइ । ग्यान मण्डली कहिए कौन, जामै ग्यानी जन परनोन ॥ एकीभाव स्तोत्र, पद्य ८१-८२ |