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जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य
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करता था । उसके खड्गको पैनी धारसे दुर्जनोंके सिर कट-कटकर गिर जाते थे । पाण्डे हेमराज पण्डित रूपचन्दजी के शिष्य थे, जैसा कि उनकी 'पंचास्तिकाय भाषा वचनिका' के अन्तिम अंशसे स्पष्ट है । उन्होने अपने गुरुके पास रहकर, जैन सिद्धान्त - शास्त्रोका सूक्ष्म अध्ययन किया और थोड़े ही समय मे अगाध विद्वत्ता प्राप्त कर ली ।
संस्कृत और प्राकृत विद्वान् होते हुए भी, उन्होने जो कुछ लिखा हिन्दी में ही लिखा । हिन्दी गद्य लेखक और कवि दोनों ही रूपोमे उनकी प्रतिष्ठा थी । उन्होंने 'प्रवचनसार' की भाषा टीका वि० सं० १७०९ में, 'परमात्म प्रकाश की वि० सं० १७१६ में, 'गोम्मटसार कर्मकाण्ड' की वि० सं० १७१७ मे, 'पंचास्तिकाय' की १७२१ मे और 'नयचक्र' की भाषा टीका वि० सं० १७२६ में लिखी । इन सभी में हेमराजके स्वस्थ गद्यके दर्शन होते हैं ।
पाण्डे हेमराज कवि भी उत्तम कोटिके थे। उन्होंने 'प्रवचनसार' का पद्यानुवाद भी किया है। इसके अतिरिक्त उन्होने 'सितपट चौरासी बोल' की रचना कुंअरपालजीकी प्रेरणा से की थी । इसीके उत्तरमे यशोविजयजीने 'दिक्पट चौरासी बोल' लिखा था । मानतुंग के 'भक्तामर स्तोत्र' का सुन्दर पद्यानुवाद इन्हीका किया हुआ है | अनुवाद होते हुए भी उसमे 'मौलिक काव्य' की सरसता है । 'हितोपदेश बावनी', 'उपदेश दोहा शतक' और 'गुरु-पूजा' भी उन्हीको कृतियां है। इससे प्रमाणित है कि वे अपने समयमें विद्वान् और कवि दोनों ही रूपोमे प्रसिद्ध थे । उनकी कविताओंपर स्पष्ट रूपसे 'वाणारसिया सम्प्रदाय' का प्रभाव था ।
१. उपजी सांगानेरि को, अब कामांगढ़ वास । वहाँ हेम दोहा रचे, स्व-पर बुद्धि परकास ॥ कामांगढ़ बस जहाँ, कीरतिसिंह नरेस ।
अपने खड्ग बल बसि किये, दुर्जन जितके देम ॥
उपदेश दोहा शतक, दोहा ६८-६६, दीवान बधीचन्दजीका मन्दिर, गुटका नं० १७, वेष्टन नं ० ६३६ |
२. " यह श्री रूपचन्द गुरुके प्रसाद श्री पाण्डे श्री हेमराजने अपनी बुद्धि
माफिक लिखत कीना ।"
पंचास्तिकाय भाषा टीका, अन्तिम प्रशस्ति ।
३. इसमें पथ संख्या ४३८ है । इसकी हस्तलिखित प्रति जयपुरके बधीचन्दजीके मन्दिरमें, वेष्टन नं० ७१८ में निबद्ध है ।
४. हेमराज पाण्डे किये, बोल चुरासी फेर ।
या विघ हम भाषा वचन, ताको मत किय जेर ॥ यशोविजयजी, दिक्पट चौरासी बोल, १५६वाँ पद्य ।