SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 398
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि रूप-सुधाका पान क्यों नहीं करते।" समझानेपर भी चेतन समझता नहीं। वह रात-दिन संसारके धन्धेमे बेहोश रहता है। अतः सुमति कुछ खोजकर कहती है, "हे चेतन ! तुम्हे कुछ यह भी ध्यान है कि तुम कौन हो, कहांसे आये हो, किसने तुम्हे बहका रखा है और तुम किसके रसमे मस्त हो रहे हो। तुम उन कर्मोके साथ एकमेक हो रहे हो, जो आज तक तुम्हारे हाथमे तो आये नही, उलटे तुम्ही उनके फन्देमें फंसकर चक्कर लगाते फिरते हो। तुम तो बड़े चतुर हो, फिर तुमने यह कौन-सी चतुराई को, जो तीन लोकके नाथ होकर भी भिखारीकी तरह फिरते हो।" ___ जीवका सबसे बडा स्वार्थ है अपनेको हो शुद्ध रूपमें पहचानना, किन्तु यह चेतन होकर भी अचेतनमे फैसकर रह गया है । उसको समझाते हुए द्यानतरायका कथन है, "हे जीव ! तूने यह मूढपना कहाँसे पाया कि सारा संसार स्वार्थको चाहता है, किन्तु तुझे वह अच्छा ही नहीं लगता। पता नहीं कि तुम क्यों अशुचि, अचेत और दुष्ट तनमें विरमके रह गये हो। तुमने अपने परम अतीन्द्रिय सुखको त्याग कर विषय रोगोंको लिपटा रखा है। तुम्हारा नाम 'चेतन' है, फिर तुमने जड़ होकर अपने नामको क्यों गंवा दिया है ? क्या तीन लोकके राज्यको छोड़कर भीख मांगते हुए तुझे लज्जा नहीं आती ? जब तुझे इस झूठे मूढपनेसे छुटकारा मिल जायेगा, तभी तू सन्त कहला सकता है, और तभी तू मोक्षके १. इक बात कहूँ शिवनायकजी, तुम लायक ठौर, कहाँ अटके । यह कौन विचक्षन रीति गही, बिनु देखहि अक्षन सो भटके ॥ अजहूं गुण मानौ तौ शीख कहूँ, तुम खोलत क्यों न पटै घटके । चिन्मूरति आपु विराजतु है, तिन सूरत देखे सुधा गटके ।। भैया भगवतीदास, शत अष्टोत्तरी, १०वाँ पद्य, ब्रह्मविलास, जैन ग्रन्थरत्नाकर कार्यालय, बम्बई, सन् १९२६, पृ० १०। २. कौन तुम कहाँ आये कौने वोराये तुमहिं, काके रस रसे कछु सुध हू घरतु हो। कौन है ये कर्म जिन्हें एकमेक मानि रहे, अजहूं न लागे हाथ भांबरी भरतु हो। वे दिन चितारो जहां बीते हैं अनादिकाल, कैसे कैसे संकट सहेहु विसरतु हो। तुम तो सयाने पै सयान यह कौन कीन्हो, तीन लोक नाथ है के दीन से फिरतु हो । वही, ३०वाँ पद्य, पृ० १४-१५ ।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy