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जैन भक्ति-काव्यका भाव-पक्ष
अनन्त सुखके साथ विलास कर पायेगा।"
एक सन्मित्रकी भाँति चेतनको समझाते हुए भूघरदासका कथन है, "ओ अज्ञानी! तू पापरूपी धतूरा न बो। फल चखनेके समय तू फूट-फूटकर रोयेगा और प्राणोसे भी हाथ धो बैठेगा। कुछ थोड़े-से विषयोंके कारण तू इस दुर्लभ देहको व्यर्थ न जाने दे। ऐमा अवसर तुझे फिर न मिलेगा, अतः नीदमे सोता न रह । ऐसे समयमे सयाने लोग कल्पवृक्षको सीचा करते है, किन्तु तू विष बोने लग रहा है, भला तेरे समान अभागा कौन होगा। संसारमे जितने दुःखदायक और रस-हीन फठ है, वे सब तेरे इस विपबीजका ही परिणाम है । तू यह सब कुछ मनमे जानकर भी भोंदू क्यों हो रहा है।"
वात्सल्यभाव
यद्यपि भक्ति-रसका स्थायी-भाव भगवद्विषयक रति है, किन्तु रतिके तीन प्रधानरूप माने गये है-भगवद्विषयक, वात्सल्य और दाम्पत्य । इनमे से अन्तिम १. जीव तैं मूढमना कित पायो।
सब जग स्वारथ को चाहत है, स्वारथ तोहि न भायो॥१॥ अशुचि अचेत दुष्ट तन माही, कहा जान विरमायो। परम अतिन्द्री निज सुख हरि के, विषय रोग लपटायो ॥२॥ चेतन नाम भयो जड़, काहे अपनो नाम गमायो। तोन लोक को राज छोड़ि कै, भीख मांग न लजायो ॥३॥ मूढपना मिथ्या जब छूटै तब तू संत कहायो । द्यानत सुख अनंत शिव विलसो, यों सद्गुरु बतलायो ॥४॥ द्यानतपदसंग्रह, जिनवाणी प्रचारक कार्यालय, कलकत्ता, पद ३८, पृष्ठ १६-१७ । २. अज्ञानी पाप धतूरा न बोय।।
फल चाखन की बार भरै दृग, मरहै मूरख रोय। अज्ञानी० ॥१॥ किंचित विषयनि के सुख कारण दुर्लभ देह न खोय । ऐसा अवसर फिर न मिलेगा, इस नीदडी न सोय । अज्ञानी० ॥२॥ इस विरियां मै धर्म कल्पतरु, सींचत सयाने लोय । तू विष बोवन लागत तो सम, और अभागा कोय । अज्ञानी० ॥३॥ जे जग मे दुख दायक बेरस, इस ही के फल सोया। यो मन भूधर जानि के भाई, फिर क्यों भोंदू होय। अज्ञानी० ॥४॥ भूधरविलास, कलकत्ता, पद ४, पृष्ठ ३ ।