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________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि दो भी भगवदुन्मुख होनेके कारण भगवद्विषयक ही है, किन्तु निरूपण भेद और रचना-विभागको दृष्टिसे ही उनका पृथक् निरूपण किया जाता है। भगवद्विषयकमे विनय, वात्सल्यमे बाल-लीला और दाम्पत्यमे मधुरभावसम्बन्धी रचनाएँ आ जाती है। मानव जीवनकी दो ही प्रमुख वृत्तियाँ है-वात्सल्य और दाम्पत्य । इनमे भी हिन्दी भक्ति-क्षेत्रके कवियोंने दाम्पत्यपर जितना लिखा, वात्सल्यपर नहीं । एकमात्र सूर हो इस क्षेत्रके जगममाते रत्न है । यद्यपि आचार्योने वात्सल्यको पृथक् रस नहीं माना है, किन्तु उसमे कुछ ऐसी स्पष्ट चामत्कारिक शक्ति है, जिससे किन्ही-किन्हीने उसे पृथक् रसके रूपमे भी स्वीकार किया है। और उसका स्थायीभाव 'स्नेह' रखा है। यदि इस दृष्टिमे देखा जाये तो जैन साहित्यमे वात्सल्य रसके आलम्बन पंचपरमेष्ठी और आश्रय माँ-बाप तथा भक्त-जन होंगे। आलम्बनगत चेष्टाएं, कार्य और उस अवसरपर मनाये जानेवाले उत्सवादि उद्दीपन विभावके अन्तर्गत आ जायेंगे । सूरके बाद वात्सल्यका सरस उद्घाटन जैन हिन्दी साहित्यमे ही हुआ है। जन्मके अवसरोपर होनेवाले आकर्षक उत्सवोकी छटाको तो सूर भी नहीं छू सके है । जैन साहित्यमे तो आलम्बनके गर्भमे आनेके पहले ही कुछ ऐसा वातावरण बनाया जाता है कि वत्सके जन्म लेनेके पूर्व ही 'वात्सल्य' पनप उठता है । सत्तरहवी शताब्दीके प्रसिद्ध कवि रूपचन्दने 'पंककल्याणक' की रचना की है, जिसके प्रारम्भमे ही गर्भ और जन्मकल्याणक है। तीर्थकरके गर्भ में आनेके छह माह पूर्व ही इन्द्रने धनपतिको भेजा, जिसने तीर्थकरकी नगरीको मणि-माणिक्योंसे सजाकर अपूर्व बना दिया। उसने बड़े-बड़े ऊंचे प्रासादोकी रचना की और उनको कनक तथा रत्नोंसे जड़ दिया। वहां स्थान-स्थानपर रम्य उपवन सुशोभित होने लगे । उनमे विहार करनेवाले सुन्दर वेश-भूषाको धारण किये नगरनिवासी मनको मोहित करते थे। जनक-गृहमे छह माह पूर्व ही रत्न-धारा बरसने लगी और रुचिकवासिनी देवियां प्रसन्न हो-होकर सब भांति जननीकी सेवामे जुट गयी। उनमें एक 'श्री' नामकी देवी थी, जिसने जननीकी उस कुंख' को बड़ी सावधानीसे शुद्ध किया, जिसमे त्रिलोकके नाथको नौ माह रहना था। तदुपरान्त एक रातको माने सोलह स्वप्न देखे और प्रातःकाल जब उनका फल अपने पतिसे पूछा तो उन्होंने 'तुम्हारा पुत्र त्रिभुवनपति होगा' घोषित किया। इस भाँति दोनो ही को आनन्द हुआ और नौ माह सुखपूर्वक बीतने लगे। १. पाण्डे रूपचन्द, पंचमंगल, गर्भकल्याणक ( पूर्ण ), बृहजिनवाणी संग्रह, सितम्बर १६५६, पृष्ठ. ५१-५३ ।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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