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________________ जैन भक्ति काव्यका भाव-पक्ष ३७३ भूधरदासने अपने 'पार्श्वपुराण' मे भगवान् पार्श्वनाथ के पंचकल्याणकोंका काव्यमय वर्णन किया है । पाण्डे रूपचन्दकी भाँति इसमें भी उन्ही बातोका उल्लेख है, किन्तु कल्पनागत सौन्दर्य अधिक है । इन्द्रकी आज्ञासे धनपतिने महाराज अश्वसेनके घर मे साढ़े तीन करोड रत्नोंकी वर्षा की । आकाशसे गिरती मणियोंकी चमक ऐसी मालूम होती थी, जैसे स्वर्गलोककी लक्ष्मी ही तीर्थकरकी माँकी सेवा करने चली आयी हो । दुन्दुभियोसे गम्भीर ध्वनि निकल रही थी, मानो महासागर ही गरज रहा हो । कुलाचलवासिनी देवियोके सौन्दर्यका वर्णन करते हुए भूधरदासने लिखा है, 'लावण्य से भरा उनका कान्तिवान् शरीर ऐसा मालूम होता था, मानो दामिनी ही आकाशसे उतरी हो । वैसे तो उन्होने अंग-अंगमे शृंगार सजाया था, किन्तु उनका स्वाभाविक रूप-सौन्दर्य भी आश्चर्यमे डालनेवाला था । उनके माथे पर चूड़ामणि जगमगा रहा था और वक्षस्थलपर कल्प वृक्षके सुमनोकी माला सुवासित हो रही थी । उनके नूपुरोसे 'श्रवन सुखद' झंकार उठ रही थी । तीर्थंकर पार्श्वनाथ के गर्भमे आते ही चारो प्रकारके देवताओके आसन हिल उठे । इन्द्रने अपने अवधिज्ञान से यह जान लिया कि आज भगवान् गर्भमे आये है । वह अपने सुरपरिवारसहित विमानपर चढ़कर गर्भकल्याणोत्सव मनानेके लिए चल पड़ा । सब देवताओने माँ-बापका कंचन कलशोंसे स्नपन किया, और मंगलगीत गाये । उन्होने विविध प्रकारसे गर्भवासी भगवान्‌की पूजा भी की । सबके चले जानेपर रुचिकवासिनी देवियां रह गयी, जो भिन्न-भिन्न प्रकारसे माँकी सेवा करती थी। कोई स्नान कराती थी, कोई शृंगार सजाती थी, कोई सुस्वादु भोजन खिलाती थी और कोई ताम्बूल देती थी थी, कोई शय्या बिछाती थी और कोई चरण दाबती थी। घर सुवासित करती थी, कोई आँगनमे बुहारी देती थी और कोई कल्पवृक्ष के फलफूलोकी भेट चढ़ाती थी । जगरामने एक 'लघुमंगल' की रचना की थी । उसमे केवल तेरह पद्य है । उसकी हस्तलिखित प्रति बड़ौतके दि० जैन मन्दिरके गुटका न० ५४ पत्र ९९- १०२ पर लिखी हुई है । उसमें भी रुचिक्रवासिनी देवियो के द्वारा तीर्थकर की माँकी सेवाका वर्णन है । एक रानीके सम्मुख दर्पण लिये खड़ी है, एक उनपर चंवर डुला रही है, एक वस्त्राभूषण पहना रही हैं, तो दूसरी । कोई सुन्दर गाना गाती कोई चन्दनसे सोचकर १. भूधरदास, पार्श्वपुराण, जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, हीराबाग, गिरगॉव, बम्बई, आषाढ़ १६७५ वि०, द्वितीयावृत्ति, ५८०-८८, पृ० ८३-८४ । २. वही, ५१२८-१३३, पृ० ८६ ३. वही, ५१३-१४४, पृ० ६० ॥ ४. वही, ५।१४७-१५०, पृ० १०-११ ।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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