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________________ ३७४ हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि वीणासे मधुर ध्वनि निकाल रही है। एक पहेलो पूछती है, तो दूसरी प्रसन्न होकर उत्तर देती है । इस भाँति दिन और रात आनन्दपूर्वक बीतने लगे। त्रिभुवननाथकी महिमाका वर्णन कहाँतक किया जाये। वे केवल भक्तपर रीझते है । जगरामने उनका यश गाया है, "करि उछाह लिज पूर गयो, माता पुण्य प्रभावै जी । छपन कुमारी टहल मैं, नाना रीति रिझावै जी ॥ इक सनमुष दरपन लीया, इक ठाडी चँवर दुरावै जी। वसन आभूषन ईक सै, इक मधुरी बैनि बजावै जी॥ पुछत एक पहेलिका, इक उत्तर सुनि हरषावै जी । निसि दिन अति आनन्द स्यो, इम नवमास बिना जी ॥ महिमा त्रिभुवननाथ की, कवि कहाँ लौं बरणावै जी। मक्ति परेना बसि भयो, जगतराम जस गावै जी ॥" नौ माहके उपरान्त भगवान्का जन्म हुआ। तीनों लोकोमे स्वाभाविक आनन्द फैल गया। कहीपर आँधी, मेह और धूलका प्रकोप दिखाई नही पड़ा, अपितु शीतल, मन्द, सुगन्ध पवन बहने लगा। कल्पवासियोके घरोमै घण्टे स्वतः बज उठे, ज्योतिषियोंके यहाँ केहरियोंका नाद होने लगा, भवनालयोंमे शंख बज उठे और व्यन्तरवासियोंके यहाँ असंख्य भेरियाँ ध्वनित हो उठी। कल्पवृक्ष स्वयं ही पुष्पोंकी वृष्टि करने लगे। इन्द्रासन भी कम्पायमान हो उठे। इस भांति आनन्दमग्न प्रकृतिने यह घोषित कर दिया कि भगवान् जिनेन्द्रका जन्म हुआ है। सभी इन्द्र अपने-अपने सिंहासनसे उठकर खड़े हो गये और वहाँसे ही भगवान्को प्रणिपात किया।' इन्द्र-दम्पतिके चढ़नेके लिए कुबेरने एक मायामयी ऐरावतकी रचना की, जिसके काल्पनिक सौन्दर्यमे काव्यत्वका पूर्ण निर्वाह हुआ है। "उस हाथीके सौ मुख थे और प्रत्येक मुखमे आठ-आठ दांत थे। प्रत्येक दांतपर एक-एक सरोवर था, और हरेक सरोवरमे एक सौ पचीस कमलिनी खिली थी। प्रत्येक कमलिनीपर पचीस मनोहर कमल बने हुए थे और हरेक कमलमें एक-सौ आठ पत्ते थे। उन पत्तोपर देवांगनाएं नृत्य कर रही थी, जिनकी छविको देखकर समार मोहित हो जाता था। उनके गीतोमे नवों रस पनप रहे थे। १. वही, ६।१-२१. पृ० ६४-६५। २. पाण्डे रूपचन्द, पंचमंगल, जन्मकल्याणक, पद्य ६, ज्ञानपीठ पूजांजलि, भारतीय शानपीठ, काशी, १९५७ ई०, पृष्ठ ६६।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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