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________________ जैन भक्ति-काव्यका भाव-पक्ष जोजन लाख गयंद, वदन सो निरमये। ___ वदन वदन वसुदंत-दंत सर संठये ।। सर सर सौ पनवीस कमलिनी छाजहीं। ___कमलिनि कमलिनि कमल पचीस विराजही ॥ राजहीं कमलिनी कमल अठोतर सौ मनोहर दल बने । दल-दलहिं अपछर नटहिं नवरस हाव भाव सुहावने ॥ मणि कनक किंकणि वर विचित्र सु अमरमंडप सोहये। घन घंट चैवर धुना पताका देखि त्रिभुवन मोहये ।। ऐसे हाथीपर इन्द्र चला और शची भी। साथमे देवगण भी विविध उत्सवोंको करते हुए चले। ___ इन्द्र-वधू प्रसूतिगृहमे गयी, जहाँ माता पुत्रसहित लेटी थी। उसने प्रदक्षिणा देकर प्रणाम किया। सुत-रागसे रंगी मां ऐसी प्रतीत होती थी, जैसे मानो बालक भानुसहित सन्ध्या हो हो । शचीने मायामयो बालकको मांके पास रखकर भगवान्को अपने हाथोमे उठा लिया। बालककी देहसे ऐसी ज्योति फूट रही थी कि उसके समक्ष करोडों सूर्योकी छवि भी मलिन ही प्रतिभासित होती थी। भगवान्की देहका स्पर्श करके इन्द्राणीको इतना सुख मिला कि उसका वर्णन कवि-वाणीसे परे है । प्रभुके मुख-वारिजको सुर-रानी बार-बार देखती थी, किन्तु अधाती नही थी। इन्द्रने तो दो नेत्रोंको अपर्याप्त समझकर सहस्र नेत्रोंकी रचना कर ली। सौधर्मेन्द्रने भगवान्को गोदमें ले लिया, ईशानके सुरेशने उनके सिरपर छत्र लगा दिया और सानत्कुमार तथा म.हेन्द्र चमर ढुलाने लगे। ब्रह्मादि स्वर्गोके इन्द्र जयजयकार बोल उठे। रूपकी खान सुररमणियां नृत्य करने लगी और गन्धर्व कन्यकाओंकी वीणाएं सुयश-गीतोंसे निनादित हो उठीं। विविध प्रकारके बाजे बज उठे। कोई-कोई तो नृत्य-गायन भूलकर बालकको निनिमेष देखता ही रह गया। ___ सब देव मिलकर बालक भगवान्को पाण्डुक वनमें ले गये और वहां पाण्डुक शिलापर विराजमान किया। फिर क्षीरसागरके एक सहस्र और नाठ कलशोंसे उनका स्नपन हुआ। उसका प्रारम्भ सौधर्म स्वर्गके इन्द्रोने किया, फिर सब इन्द्रों और देवोंने अनेक भरे हुए कलशे उस सद्य.प्रसूत बालकके सिरपर ढाले। वहाँ एक नभगंगा-सी प्रवाहित होने लगी। अतुल बल और वीर्यके कारण ही १. भूधरदास, पार्श्वपुराण, बम्बई, ६।३२-३५, पृष्ठ ६७ । २. वही, ६३८-४१, पृष्ठ १७ । ३. वही, ६६३-६४, पृष्ठ १०० ।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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