________________
हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि
भगवान् उस प्रबल जल-धाराको सहन कर सके, अन्यथा उसमे इतनो शक्ति थी कि बड़े-बड़े गिरि-शिखर भी खण्ड-खण्ड हो जाते। भगवान्के श्यामवर्ण शरीरपर कलश-नीरकी ऐसी छटा थो, जैसे मानो नीलाचलके सिरपर पालेके बादल बरस रहे हों। उनके स्नपनके जलकी छटा उछलकर आकाशको ओर चल उठी सो मानो वह भी स्वामीके साथ पापरहित हो गयी है, अतः उसकी भी ऊर्ध्वगति क्यो न हो। उनके स्नपनके जलकी तिरछी छटा ऐमी विदित होती थी, जैसे किसी दिग्वनिताका कर्णफूल ही हो।
'जन्म न्हीन' को विधि पूर्ण होनेपर, शचीने पवित्र वस्त्रसे उनके शरीरको निर्जल किया। उसपर कुंकुमादि बहुत प्रकारके लेपन किये। अब भगवान्के शरीरकी शोभा ऐसी मालूम होने लगी जैसे नीलगिरिपर सांझ फूली हो। शचीने भगवान्का सब शृंगार किया। उनके भालपर तिलक लगाया, सिरपर मणिमय मुकुट रखा और माथेपर चूडामणि लगाया। स्वाभाविक रूपसे अंजित नेत्रोंमें भी अंजन लगाया। दोनों कानोंमे मणिजटित कुण्डल पहनाये, जो चन्द्र और सूरजकी भांति ही प्रकाशित हो रहे थे। कण्ठमे मोतियोको माला, भुजाओंमे भुजबन्ध और उँगलियोंमे मुद्रिकाएं पहनायीं। कमरमे मणिमय क्षुद्रघण्टिकाओंमे युक्त तगडी पहनायो, जिसमें रत्नोकी झालर लटक रही थी। विभिन्न आभूषणोंसे युक्त भगवान् इस भॉति विराज रहे थे, जैसे विविध फलोंसे युक्त सुरतरु ही सुशोभित हो रहा हो।"
सम्राट् अश्वसेनने भी जन्मोत्सव मनाया। वाराणसीके घर-घरमे मंगलाचार होने लगे। कामिनियां गीत गा उठों और स्थान-स्थानपर नृत्य तथा संगीत होने लगा। समूचे नगरमे चन्दन छिड़कवा दिया गया और घर-घरमे रत्नोके साथिया रखे गये। याचकोंको दान दिया गया। और सुजनोंका सम्मान हुआ। सबकी आशाएं पूरी कर दी गयीं। अब कोई भी दीन-दुःखी दिखाई नही देता था। ऐसे अवसरपर इन्द्रने भी देवताओके साथ आनन्द नामके नाटककी रचना की, जिसमे उसके ताण्डव-नृत्यका दृश्य अनुपम था।
प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेवके जन्मोत्सवकी बात कहते हुए द्यानतरायने लिखा है, "हे भाई ! आज इस नगरीमे आनन्द मनाया जा रहा है । जितनी भी
१. वही, ६।६६-६७, पृ० १००। २. वही, ६६८-७०, पृ० १०० । ३. वही, ६६७५-८१, पृ०१०१। ४. वही, ६१०६-१०६, पृ० १०४ । ५. वही, ६३१११, ११३, पृ० १०५