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जैन भक्ति काव्यका भाव-पक्ष
दासी किये बिन लातनि मारत । ऐसी अनीति न
कीजे गुसांई ॥ "
इस ससारमे आकर चेतन दृढ बन्धनोमे बँध गया है, किन्तु उस बेसुधको इसका होश ही नही है | भला अब उसको उन बन्धनोसे कौन छुडाये । वह विवेकहीन है, ठीक वैसे ही जैसे गजराज स्नान करनेके उपरान्त भी अपने शरीरपर धूल डाल लेता है, और जैसे रेशमका कीडा तन्तुओंको उगलकर स्वयं उनके बन्धनमे बँध जाता है । उसे समझाते हुए कत्रिने कहा है, "हे चेतन ! तुम स्वयं सम्यक् ज्ञान हो, किन्तु संसारकी भ्रम-वोचियोमे अपनेको भूल गये हो । अब शुभ व्यान धरके और ज्ञान- नौकापर चढ़के इन वीचियोसे पार निकल जाओ ।” २
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'चेतन' के प्रति सखाभावके उद्गार अभिव्यक्त करनेमें भगवतीदास 'भैया' अप्रतिद्वन्द्वी है। उन्होने सुमतिको रानी और चेतनको राजा बनाया है । सुमति अपने पतिको सर्वोत्तम मानते हुए भी उसके पथ भ्रष्ट होनेपर कभी प्रणय-भरी सीख और कभी मीठी फटकार लगाती है । प्रेमपूर्वक समझाने अथवा मीठी फटकार लगाने का काम सिवा मित्रके और नहीं कर सकता । पत्नी भी जब ऐसा करती है, तो वह मित्र ही है । सुमति चेतनको सम्बोधन करके कहती हैं, "हे शिवनायकजी ! एक बात कहती हूँ कि क्या यह स्थान तुम्हारे रहने योग्य है, जहाँ तुम भटक रहे हो। यह तुमने कौन सो विचक्षण रीति अपनायी है कि तुम बिना देखे भाले ही इन्द्रियोमे अटक गये हो । यदि तुम आज भी मेरे गुणोंमे विश्वास करो तो एक भलाईकी बात कहूँ कि तुम अपने घटके पट क्यो नही, खोलते ? वहाँ तुम स्वयं प्रकाशमान होकर विराज रहे हो, उस अपनी सुन्दर
१. चेतन तोहि न नेक संभार,
नख सिखलो दिढबन्धन बेढे कौन करें निखार, चेनन० ॥१॥ ज्यों गजराज पखार आप तन, आप ही डारत छार ।
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आपहि उगलि पाटको कीरा, तर्नाह लपेटत तार, चेतन० ॥३॥ बनारसीदास, बनारसीबिलास, जयपुर, १६५४, पृ० २३१ । २. आये निकसि निगोद सिंधु तें, फिर तिह पंथ टले ।
कैसे परगट होय आग जो दबी पहार तले, चेतन० ॥३॥
भूले भव भ्रम वीचि 'बनारस' तुम सुरज्ञान भले ।
घर शुभ ध्यान ज्ञान नौका चढि, बैठे ते निकले, चेतन० ॥४॥
बनारसीदास, बनारसीविलास, जयपुर, अध्यात्मपदपंक्ति, पद्य ११वॉ, पृ० २३१ |