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हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि
सच्चे मित्रकी भांति ही उसे सावधान करता है। यद्यपि सन्त साहित्यके 'चेतावणी को अंग'मे भी सावधान करनेकी ही बात है, किन्तु वहां जिस मनको सावधान किया जा रहा है, उसमे भगवान् बननेकी सामर्थ्य नहीं है, अतः हम उसे सखाभाव नहीं कह सकते। जैन साहित्यमें तो चेतनको ही परमात्मा माना है और उसके सुखके लिए उसे सावधान करनेवाला मित्र ही है, अन्य नहीं। पाण्डे रूपचन्दने 'गीत परमार्थी मे लिखा है, "हे चेतन ! मुझे भारी आश्चर्य है कि जब अमृत-जैसे हितकारी वचनोके द्वारा सद्गुरु तुम्हें समझाता है और तुम भी ज्ञानी हो, फिर न जाने क्यो तुम चेतन होते हुए भी चेतन तत्त्वकी कहानी नहीं समझते।' 'परमार्थी दोहाशतक' में तो उन्होने बड़े ही प्रेमपूर्ण ढंगसे चेतनको समझाया है। उन्होंने कहा, "अहो जगत्के राय ! अपने पदका विचार छोड़कर और शिवपुरीकी सुध भुलाकर भव-वनमें क्यों छा रहे हो। तुम्हें इस संसारमें भ्रमण करते-करते अनादि काल बीत चुका है। व्यर्थ ही दुःख क्यों झेलते हो ? अपने घरको क्यों नहीं संभालते । इन्द्रिय-सुखसे लगकर तुम विषयोंमें बेहोश हो रहे हो, और परम अतीन्द्रिय सुखको नहीं समझते । किन्तु विषयोंका सेवन करते हुए तुम्हारी तृष्णा उपशम नहीं होगी, प्रत्युत खारे जलके समान बढ़ती ही जायेगी।"
मायाके फन्देमें फंस चेतनको सावधान करते हुए पं० बनारसीदासने लिखा है, "हे चेतनजो ! तुम जागकर अर्थात् सावधान होकर देखो कि कहां मायाके पीछे लगे हो। माया और तुम्हारा क्या सम्बन्ध ? तुम तो न जाने कहाँसे आये हो और कहाँ चले जाओगे, किन्तु माया तो जहाँको तहाँ ही रहेगी। माया न तो तुम्हारी जाति-पातिकी है, न वंशकी है और न तुम्हारे अंशकी इसमे कुछ झलक है। इसको दासी न बनानेसे यह तुम्हें लातोंसे पीटती है। हे चेतन, तुम ऐसी अनीति क्यो सहन करते हो । तुमको इस मायाकी दासता छोड़ देनी
चाहिए।"
"चेतन जी तुम जागि विलोकहु,
___लागि रहे कहां माया के ताई ॥ आये कहीं सों कहीं तुम जाहुगे,
माया रहेगी जहां के तहाई ॥ माया तुम्हारी न जाति न पांति न,
वंश की वेलि न अंश की झाई॥ १. पाण्डे रूपचन्द, गीत परमार्थी। २. पाण्डे रूपचन्द, परमार्थी दोहा शतक । ३. बनारसीदासे, नाटक समयसार, साध्यासाधकदार, पब ७, पृ० १२८ ।