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जैन भक्ति-काव्यका भाव-पक्ष
कुछ समय पहले तक हिन्दीके बड़े-बड़े विद्वान् यह स्वीकार करते रहे है कि हिन्दीमे लिखी गयी जैन रचनाएँ धर्म प्रचारको माध्यम-भर है, उनमें वह भावोन्मेष नही है जिसके आधारपर रसका उद्रेक होता है। यदि 'रसो वै सः', 'रसं लब्ध्वाऽऽनन्दी भवति' वाली बात रस है, और हृदयसे स्वतः फूटी अन्तःसलिला ही भाव-धारा है, तो जैन काव्यमे रस और भाव दोनों हो सन्निहित है । 'भक्तिरसामृत सिन्धु'मे भक्ति रससे सम्बन्धित पांच भाव स्वीकार किये गये है : शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य और माधुर्य । उनको उत्तरोत्तर उत्तम माना है, किन्तु जैनभक्तिमें 'शान्त' ही सर्वोत्तम है। यहां इन्हीं भावोके आधारपर जैन-भक्तिका भाव-पक्ष उपस्थित किया गया है। भावोंका क्रम इस प्रकार है : सख्यभाव, वात्सल्यभाव, प्रेमभाव, विनयभाव और शान्तभाव । इनमे आगे-आगे विशुद्धता आती गयी है।
सख्यभाव
भगवान्को सखा मानना ही सख्यभाव है। इसमें बराबरीका दर्जा प्रधान होता है। भगवान् अपने मित्रोंपर भगवत्त्वका आरोपण नही करते, मित्र भी भगवान्के ऐश्वर्य और माहात्म्यसे आश्चर्यान्वित न होकर, उनकी सुख-सुविधाका ही अधिक ध्यान रखते है। उनमे सेव्य-सेवक भावकी भांति संकोच नही होता, अपितु वे आपसमे स्पष्ट रूपसे खुले रहते है। यदि कभी मित्रको भगवान्का काम अनुचित और भ्रमपूर्ण मालूम होता है तो वह उसका निराकरण भी करता है। __ जैन साधनाके आध्यात्मिकतावाले पहलू में सखा-भावका निर्वाह हुआ है। कर्म-मलसे रहित विशुद्ध आत्मा ही परमात्मा है । उसे जैन-शास्त्रोंमे 'सिद्ध' संज्ञा दी गयी है। अर्थात् आत्मामे परमात्मा बननेके सभी अंश मौजूद है। यह जीव उस आत्मासे प्रेम करता है और उसे चेतन नामसे पुकारता है। उसीके साथ उसका मित्र-भाव है। जब भ्रमवशात् चेतन असंगत पथपर चलता है, तो यह जीव