________________
२८५
जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य
जो तुम नाम जपै मन माहीं। जनम मरन भय ताको नाहीं॥ तुम गुण हम कैसे करि गावें। गणधर कहत पार नहिं पावै ।। करुणासागर करुणा कीजे।
धानत सेवक को सुख दीजे ॥" तृतीय आरती श्री मुनिराजको है, जो अधर्मोका उद्धार करनेवाले है । उनके चरित्रका गुणगान करते हुए कवि कहता है, "वे शत्रु-मित्र और सुख-दुःखको समान मानते है तया लाभ और अलाभको भी बराबर समझते है।''
चतुर्थ आरती भगवान् महावीरको भक्तिमे रची गयी है। वे भगवान् मनुष्योको तारनेमें भी वैसे ही पटु हैं, जैसे कि अपने कर्मोके विदीर्ण करनेमे । वे शीलवानोंमे सर्वोत्कृष्ट है और 'शिव-तिय' का भोग करनेवाले हैं। वे मन-वचन और कायसे योगी है,
"राग-विना सब जग जन तारे; द्वेष विना सब करम विदारे । करौं भारती वर्द्धमान की, पावापुर निरवान था। की ॥१॥ शील धुरंधर शिवतिय मोगी, मनवचकानि कहिये योगी ॥
करौं आरती वईमान की। पावापुर निरवान थान की ॥२॥" पंचम आरती आतमरामको है। इसमें एक उत्कृष्ट रूपक है। आत्मा ही भगवान् राम है। वह भगवान् तनरूपी मन्दिरमें विराजमान है। भक्त अष्ट द्रव्योंसे उसको पूजा करता है। समरसका आनन्द ही जल-चन्दन है, तत्त्वस्वरूप तन्दुल, अनुभव-सुख नैवेद्यका भरा हुआ थाल, ज्ञान दोपक, ध्यान धूप और निर्मल-भाव महाफल है। सबको मिलाकर अर्घ्य बन जाता है। इस भांति भविक जन जो नवधा-भक्तिमें प्रवीण है, सगुणकी भांति ही आत्मारूपी राममें एकनिष्ठ हो तल्लोन हो रहे हैं। देखिए,
"मंगल आरतो आतमराम । तन मंदिर मन उत्तम ठान । समरस जल चंदन आनंद । तंदुक तत्व स्वरूप अमंद ।। समयसार फूलन की माल । अनुभव सुख नेवज भरि थाल । दीपक ज्ञान ध्यान की धूप । निर्मल माव महाफक रूप ।।
सुगुण भविक जन इकरस लीन । निहचै नवका मक्ति-प्रवीन ॥" १. बृहज्जिनवाणी संग्रह, पृष्ठ ५१६ । २. शानपीठ पूजांजलि, खण्ड ७, पृष्ठ ५३४ । ३. बृहजिनवाणी संग्रह, पृ० ५२२ ।