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________________ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि जब कोई व्यक्ति अत्यधिक उत्साह के साथ अन्तर्हृदयमे विराजमान परमात्माका ध्यान लगायेगा, तो यह सिद्ध बात है कि ध्यानकी उत्कृष्ट अवस्थामे वह परमात्मामय हो जायेगा, अर्थात् वह और उसका साहब एक हो जायेगा । जैन लोग ऐसे ध्यानको शुक्ल ध्यान कहते है । द्यानतरायने भी ऐसा ही कुछ कहा है, २८६ "धुनि उतसाह सु अनहद गान । परम समाधि निरत परधान || बाहिर श्रातम भाव बहावै । अन्तर है परमातम ध्यावै ॥ साहब सेवक भेद मिटाय । यात एकमंक हो जाय ॥ " समाधिमरण द्यानतरायका रचा हुआ समाधिमरण छोटा समाधिमरण कहलाता है। इसमे कुल दस पद्य है | यह 'बृहज्जनवाणी संग्रह' मे प्रकाशित हो चुका है। धर्म पच्चीसी इसमे कुल २७ पद्य है । यह भी उपर्युक्त 'जिनवाणी संग्रह' में निबद्ध है । इसमे जैन धर्म के प्रति अगाध श्रद्धा प्रदर्शित की गयी है। एक स्थानपर कविने कहा है कि जैन धर्मके बिना मनुष्य वैसे ही है जैसे चन्द्रके बिना रात्रि, दाँतके बिना हाथी, और कन्तके बिना तरुण नारी, "चंद विना निश गज विन दंत । जैसे तरुण नारि विन कंत ॥ धर्म विना यों मानुष देह । तातैं करिये धर्मं सनेह ॥ " नीरके बिना सरोवर शोभा नही पाता, गन्धके बिना पुष्पका कुछ मूल्य नहीं और घनके बिना घरमे कोई सौन्दर्य नही आ पाता, ठोक वैसे ही धर्मके बिना मनुष्य भी सुशोभित नहीं होता, " जैसे गंध बिना है फूल । नीर विहीन सरोवर धूल ॥ ज्यों धन बिन शोभित नहिं मौन । धर्म विना नर स्यौं चितौन ॥३३॥" 1 कमला चपल है और यौवन जरामे बदल जाता है। सुत, मित्र और नारीका संयोग भी क्षणिक है । संसारका भोग स्वप्नके समान है । यह देखकर शुद्ध स्वभावसे जैन धर्म में श्रद्धा रखनी चाहिए। जैसा भाव होगा वैसी ही गति मिलेगी, "मला चपल रहे थिर नाय । यौवन कांति जरा लपटाय || सुमित नारी नाव संजोग । यह संसार सुपन का मोग ॥
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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