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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि
गुणावली चौपई
इसमे ज्ञानपंचमीकी कथा है। इसका निर्माण सं० १७४५ कार्तिक शुक्ला १० को उदयपुरमे हुआ था। इनका उल्लेख नाहटाजीकृत 'निनचन्द्र सूरि' के पृ० १६४ पर हुआ है। सीमन्धर स्तवन
इसकी प्रति जयपुरके ठोलियोकै दिगम्बर जैन मन्दिरके गुटका नं० ५७ मे संकलित है । इस स्तवनकी रचना सोमन्धर भगवान्की भक्तिमे की गयी है।
६२. पं० होरानन्द (वि० सं० १७११)
ये पण्डित तो थे ही, कवि भी अच्छे थे। इनका रचनाकाल अठारहवीं शताब्दीका प्रथम पाद माना जाता है। पण्डित जगजीवनके समयमे ये शाहजहांनाबादमे रहते थे। विद्वानोमे उनकी गणना थी। जगजीवनके कहनेपर उन्होंने 'पंचास्तिकाय'का पद्यानुवाद केवल दो माहमे किया था ।' 'पंचास्तिकाय' आचार्य कुन्दकुन्दको रची हुई प्राकृत भाषाको रचना है। इसमे उच्चस्तरके दार्शनिक सिद्धान्तोंका विवेचन है। उसका इतनो शीघ्रतासे हिन्दी-पद्यमे, वह ही अनुवाद कर सकता है, जो एक ओर तो प्राकृत और हिन्दीका समरूपसे जानकार हो, और दूसरी ओर दर्शन तथा कवित्वमें भी निष्णात हो। होरानन्द दार्शनिक थे और कवि भी।
उस समय आगरेमे ज्ञाताओकी एक मण्डली थी, जिसमें संघवी जगजीवन, पं० हेमराज, रामचन्द, संघी मथुरादास, भवालदास, और भगवतीदास शामिल थे। उसी मण्डलीमे पं० हीरानन्दका भी नाम आता है।
उनकी रची हुई चार कृतियोंका परिचय निम्न प्रकारसे है, पंचास्तिकाय भाषा
इसकी रचना वि० सं० १७११ में श्री जगजीवनकी प्रेरणासे की गयी थी। यह ग्रन्थ बहुत पहले छपा था, और सं० १९७२ में जैनमित्रके ग्राहकोंको उपहार
१. हिन्दी जैन साहित्यका इतिहास, पृष्ठ ६० । २. पं० हीरानन्द, समवशरण स्तोत्र, अन्तिम पद्य, २८१-८६, लूणकरणजी पारड्या
मन्दिर, जयपुरकी हस्तलिखित प्रति, गुटका नं० १४४, पृष्ठ ३११ ।