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जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य
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है । कंकण दिखाकर कंकणवालीको अगाध रूप-राशिका अनुमान करवानेमे अधिक स्वाभाविकता नही है । अन्तमें अलाउद्दीनका आक्रमण, युद्ध और रतनसेनका बन्दी होना आदि सब कुछ वैसा ही वर्णन है ।
इस कथाके प्रारम्भमे ही दिया हुआ मंगलाचरण है जिसमे भगवान् जिनेन्द्रकी भक्ति प्रबल है ।
"श्री आदीसर प्रथम जिन, जगपति ज्योति सरूप । निरभय पदवासी नमूं, अकल अनन्त अनूप ॥ चरण कमल चितसुं नमूं चौबीस मो जिण चन्द | सुषदाइक सेवक भणी, सांचो सुरतरु कन्द ॥ सुप्रसन्न सारद सामिणी, होज्यो मात हजूर । बुधि दीजो मु जन बहोत, प्रगट वचन पंडूर |
कविने इस कथाको नौ रसोमें लिखा है, किन्तु उसमे वीर और शृंगार ही प्रधान है । इसीकी घोषणा करते हुए कविने कहा,
"सरस कथा नवरस सहित, वीर श्रृंगार विशेष । कहिस्युं कवित कल्लोलसु, पूरब कथा संखेप ॥' उन रसोमे-से वीर-रसका एक दृष्टान्त देखिए, "सूर कहावें सुमट सहू अपर्णे श्रपणे मन्न, दाडं पढ़े दुष उद्धरे तेह कहिई धन्न धन्न । सामिधरम बादल समौ, हूभ न कोई होइ, जुधि जीतो दिल्ली घणी, कुळ उजियाल्या दोय । राणोजी छोडाविया, राणी पदमिणि राषी, बीरुद बड़ो षाट्यो वसु, सुभटां राषि साषि । चट्टन राज चित्रोको, कीधो बादल वीर, नवखंडे यस विस्तर्यो, स्वामी धरमी रणधीर ॥ गुरु-भक्तिका एक दोहा निम्न प्रकारसे है,
" ज्ञाता दाता ज्ञानघन, ज्ञानराज गुरु राज, तास प्रसाद थकी कहु, सती चरित सिरताज ।" मलयसुन्दरी चौपई'
इसका उल्लेख श्री देसाईजीने 'जैन गुर्जरकविओ मे किया है। इसका निर्माण
सं० १७४३ घनतेरस के दिन हुआ था ।
१. जैन गुर्जर कविओो, खण्ड २, भाग ३, पृष्ठ ११८५-८६ ।