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________________ ४८० हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि अजैन सन्त तनमें एक लम्बा-सा झगूला और सिरपर पल्लेदार टोपी पहनते थे, जब कि जैन सन्तोकी वेष-भूषा अपनी ही पूर्व परम्पराके अनुकूल थी। सन्त आनन्दघनके विषयमे यह निश्चय हो गया है कि वे झंगूला नही पहनते थे, अपितु उनकी वेष-भूषा जैन साधुकी थी। २. जैन आराधना और सगुण भक्ति सूर और तुलसी सगुण ब्रह्मके भक्त थे। सगुण ब्रह्म वह है, जिसने पृथ्वीपर अवतार लिया है, जिसमे रूप-रेखा है, जो व्यक्त और स्पष्ट है। जैन कवियोंने अपनी उपासनाके पुष्प अर्हन्तके चरणोमे अर्पित किये है । अर्हन्त वे है, जिन्होंने पहले तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध किया हो, किन्तु फिर भी उनको अवतार नहीं कहा जा सकता। वे तप और ध्यानके द्वारा भयकर परीषहोको सहते हुए चार धातिया कर्मों को जला पाते हैं, तब कही अर्हन्त कहलानेके अधिकारी होते है। अर्थात् ब्रह्म पहले ही से भगवान है, किन्तु अर्हन्त स्वपौरुषसे भगवान् बनते है। इसके अतिरिक्त सगुण ब्रह्म विश्वके कर्ता है, जब कि अर्हन्तमे केवल प्रेरणाजन्य कर्तत्व ही पाया जाता है । किन्तु साकारता, व्यक्तता और स्पष्टताको दृष्टिसे दोनोमे कोई अन्तर नही है। अतः जैन भक्तिक्षेत्रमे अर्हन्त सगुण ब्रह्मके रूपमे ही पूजे जाते है। __ अर्हन्तमें साकारता इसलिए है कि आयुकर्म क्षीण होने तक उनका शरीर अवशिष्ट है । सिद्ध, आयुकर्मके नष्ट हो जानेसे, शरीरको त्याग कर, शुद्ध आत्मरूपमे सिद्धशिलापर विराजते है, अतः वे निराकार है । सिद्धने आठो कर्मोका क्षय कर लिया है, जब कि अर्हन्तको चार अघातिया कर्म नष्ट करने हैं। सिद्ध अर्हन्तसे बड़े है, किन्तु जैनोंके प्रसिद्ध मन्त्र ‘णमो अरिहन्ताणं' मे पहले अर्हन्तोको १. आचार्य क्षितिमोहनसेनने 'जैनमरमी आनन्दधनका काव्य' नामके निबन्धमें लिखा था, "यह भी जान पडता है कि वे साधुवेश त्याग करके मरमी भक्तोके समान दीर्घ अंगावरण पहना करते थे।" देखिए, वीणा, १९३८ ई०, नवम्बर, अंक १, पृ० ८। २. एक यति ज्ञानसागर हुए है, जिन्होंने आनन्दधन बहत्तरीको टीका लिखी थी। उनके अनुसार महात्मा मानन्दघन जैन साधुकी वेश-भूषामें ही रहते थे। ३. जैन भक्ति-काव्यकी पृष्ठभूमि, प्रथम अध्याय, ४. "निष्कलः पञ्चविधशरीररहितः।" परमात्मप्रकाश, १२२५, ब्रह्मदेवकी सस्कृत टीका, पृष्ठ ३२ ।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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