________________
तुलनात्मक विवेचन
४८५ ही नमस्कार किया गया है, क्योंकि वे समवशरणमे विराजकर अपनी दिव्य वाणीसे जनताका उपकार करते है। इस भाँति स्पष्ट है कि लोकके मध्य उन्हींकी प्रतिष्ठा अधिक है। ___ जैन हिन्दी कवियोंने अर्हन्तके प्रति अनुरागमूलक भक्तिका पद-पदपर परिचय दिया है। यहाँतक कि उन्होने भव-भवमे भक्तिकी ही याचना की। भक्तके लिए भक्ति ही उत्कृष्ट फल है। उपाध्याय जयसागर (१५वी शती) ने 'चतुर्विशति जिनस्तुति' में भगवान महावीरसे प्रार्थना की है, "करि पसाउ मुझ तिम किमई, महावीर जिणराय। इणि भवि अहवा अन्न भवि, जिम सेवउं तु पाय ।"कवि जयलाल (१६वी शती) ने तीर्थंकर विमलनाथकी स्तुतिमे लिखा है, "तुम दरसन मन हरषा, चंदा जेम चकोरा जो। राजरिधि मांगउं नही, भवि भवि दरसन तोरा जी ।" भूबरदास भगवान्को देखकर ऐसे विमुग्ध हुए कि भव-भवमें भक्तिकी ही यात्रा की:
"मरि नयन निरख नाथ तुम को और वांछा ना रही । मन ठठ मनोरथ मये पूरन रंक मानो निधि लही ॥ अब होउ भव-भव भक्ति तुम्हरी, कृपा ऐसी कीजिये ।
कर जोरि भूधरदास विनवै, यही वर मोहि दीजिये ॥" जैन कवियोंकी 'और वांछा ना रही' वाली बात सूरदास और तुलसीदासमे भी पायी जाती है । तुलसीदासने 'विनयपत्रिका' मे लिखा है, "चहौं न सुगति, सुमति, संपति कछु, रिधि, सिधि विपुल बड़ाई। हेतु रहित अनुराग राम-पद बढ़े, अनुदिन अधिकाई ॥" सूरदासने अपनी स्वाभाविक गरिमाके साथ ही कहा,
१. "असत्यहत्याप्तागमपदार्थावगमो न भवेदस्मदादीनां, संजातश्चैतत् प्रसादा
दित्युपकारापेक्षया वादी अर्हन्नमस्कारः क्रियते ।" भगवत् पुष्पदन्त भूतबलि, घटखण्डागम, वीरसेनाचार्यकी टीकासहित, डॉ.
हीरालाल जैन सम्पादित, अमरावती, वि० सं० १६६६, पृष्ठ ५३-५४ । २. जैन गुर्जरकविओ, तीजो भाग, पृष्ठ १४७६ ।। ३. मुनि जयलाल, विमलनाथ स्तवन, १३वाँ पद्य, श्री कामताप्रसाद जैनके संग्रहकी
हस्तलिखित प्रति। ४. भूधरदास, दर्शन स्तुति, चौथा पद्य, बृहज्जिनवाणी संग्रह, पं० पन्नालाल वाकलीवाल
सम्पादित, सम्राट संस्करण, मदनगज, किशनगढ़, सन् १९५६ ई०, पृ० ४० । ५. गोस्वामी तुलसीदासे, विनयपत्रिका, वियोगीहरि सम्पादित, वि० सं० २००७,
पूर्वाध, पद १०३, पृष्ठ १६५ ।