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________________ ४८२ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि "अपनी मक्ति देहु भगवान् । कोटि लालच जो दिखावहु, नाहि नैं रुचि आन ॥'' भक्तिसे मुक्ति ___ जैनधर्मका मूलाधार है मुक्ति । जैनोंके आराध्य वे परमात्मा है, जिन्होंने 'कर्ममलीमस' को दूर कर मुवित प्राप्त कर ली है। कर्मोंसे पूर्णतया छुटकारा पा लेना ही मुक्ति है । जैन सिद्धान्तमे यह मुक्ति ज्ञानके द्वारा प्राप्तव्य मानी गयी है। हिन्दीके जैन भक्त-कवियोंने अपने भगवान्से मुक्तिकी भी याचना की है। अर्थात् उन्हे भक्तिसे मुक्ति मिलनेका पूर्ण विश्वास है। इसे लेन-देनका भाव नहीं कह सकते, क्योकि जिनेन्द्र मुक्तिरूप ही है। कर्मोसे मुक्त हुई आत्मा जिनेन्द्र है और वह ही मुक्ति है। अतः मुक्तिकी याचनामे भक्तके जिनेन्द्रमय होनेका भाव है। भक्त सदैव अपने आराध्यकी इस महिमासे अनुप्राणित होता रहा है। जब द्यानतरायने यह कहा कि, "जो तुम मोख देत नहिं हमको, कहां जायं किहिं डेरा", तो उसमे भी अपने भगवान्को महिमाकी ही बात है। तुलसीने भी, "रघुपति-भक्ति सत-संगति बिनु, को भव त्रास नसावै ।" मे रामकी महिमाका हो वर्णन किया है। ___कवि बनारसोदासने तो यहांतक लिखा कि भगवान् जिनेन्द्रसे मुक्तिकी याचनाकी आवश्यकता नहीं है, उनके चरणोंका स्पर्श करनेसे वह तो स्वतः ही प्राप्त हो जाती है, “जगत मे सो देवन को देव । जासु चरन परसें इन्द्रादिक, होय मुकति स्वयमेव ॥" इसीसे मिलता-जुलता सूरदासका कथन है, जिसमें उन्होंने कृष्णके भजनसे हो भव-जलनिधिको पार उतरना लिखा है, "सूरदास व्रत यहै कृष्ण भजि भवजलनिधि उतरत ।" १. सूरदास, सूरसागर, प्रथम खण्ड, आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी सेम्पादित, काशी नागरी प्रचारिणी सभा, बनारस, द्वितीय संस्करण, वि० स० २००६, प्रथम स्कन्ध, १०६वा पद, पृ० ३४ । २. “बन्धहेत्वभाव-निर्जराभ्यां कृत्स्न-कर्मविप्रमोक्षो मोक्षः" तत्त्वार्थसूत्र, १०।२। ३. पं० रामचन्द्र शुक्लने इसको लेन-देनका भाव कहा है। देखिए चिन्तामणि, प्रथम भाग, पृ० २०५। ४. द्यानतपदसंग्रह, कलकत्ता, ५वाँ पद, पृष्ठ ३ । ५. विनयपत्रिका, वियोगीहरि सम्पादित, षष्ठ संस्करण, बनारस, पूर्वार्ध १२१वॉ पद, पृ० २२५। ६. बनारसीदास, अध्यात्मपद पंक्ति, १५वॉ पद, बनारसीविलास, जयपुर, पृ० २३२ । ७. सूरसागर, प्रथम स्कन्ध, ५५वाँ पद, पृ० १६ ।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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