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________________ तुलनात्मक विवेचन ४८३ भक्तिसे ज्ञान जैन और वैष्णव दोनों ही भक्त कवियोंने ज्ञानको अनिवार्यता स्वीकार की है। तुलसीने लिखा है कि ज्ञानके बिना इस संसाररूपी समुद्रको कोई पार नहीं कर सकता, बिनु विवेक संसार घोर निधि, पार न पावै कोई ।' कवि बनारसीदासने भी ज्ञानके बलपर ही मंसारसे तरनेकी बात कही है, बनारसीदास जिन उकति अमृत रस, सोई ज्ञान सुने तू अनंन मव तरिहै। तुलसीदासने "रघुपति भक्ति-वारि छालित चित, बिनु प्रयास ही सूझै के द्वारा, रघुपतिके भक्तिरूपी जलसे पवित्र हुए चित्तमे, बिना प्रयासके ही, ज्ञानके उत्पन्न होनेकी बात लिखी है। सूरदासने भी, "सूर स्याम-पदनख प्रकास बिनु, क्यों करि तिमिर नसावै"' में भगवत्कृपासे ही अज्ञानान्वकारका दूर होना स्वीकार किया है। जैन कवियोका भक्तिसे ज्ञानकी उत्पत्ति में सतत विश्वास रहा है। कवि बनारसीदासने 'नाटक समयसार' में लिखा है कि भगवान् जिनेन्द्रके यशका वर्णन करनेसे ज्ञानका प्रकाश छिटक जाता है और मलिन बुद्धि निर्मल हो जाती है, "जाको जस जपत प्रकास जगै हिरदे मैं, सोह सुद्धमति होइ हुती जु मलिन सी।" द्यानतरायने भी, "सर्व चिन्ता गई बुद्धि निर्मल भई, जबर्बाह चित्त जुगल चरननि लगायो।" के द्वारा भगवान्के चरणोंमें चित्त लगानेसे बुद्धिका निर्मल होना लिखा है। इस विषयको लेकर जैन और वैष्णव कवियोंमें एक अन्तर भी है । जहाँ तुलसी और सूरने केवल भक्तिसे ही ज्ञानका प्राप्त होना लिखा है, वहां जैन १. विनयपत्रिका, पूर्वार्ध, बनारस, ११५वाँ पद, पृ० २१४ । २. शानबावनी, २०वाँ पद्य, बनारसीविलास, जयपुर, पृ० ७ । ३. विनयपत्रिका, पूर्वाद्ध, १२४वॉ पद, पृ० २३० । ४. सूरसागर, प्रथम खण्ड, प्रथम स्कन्ध, ४८वाँ पद, पृ०१७ । ५. नाटक समयसार, जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई, प्रथम संस्करण, वि० सं० १६८६, १३३२, पृ० ४६८ । ६. धानतपदसंग्रह, कलकत्ता, ११वॉ पद, पृ०५।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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