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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि कवियोंने भक्तिके साथ-साय स्वानुप्रयामको भी महत्ता प्रदान की है। कवि बनारसीदासका कथन है कि यह जीव अपने निजी प्रयाससे ही ज्ञानको प्राप्त करता है और खोता है, "पापु समारि लखै अपनो पद,
आपु विसारि के आपुहि मोहै। व्यापक रूप यहै घट अंतर,
___ ग्यान में कौन अज्ञान में को है ॥" माया अज्ञानको प्रतीक है। उसके विषयमें भी यही बात है। तुलसीदासने, "माधव असि तुम्हारि यह माया, करि उपाय पचि मरिय, तरिय नहि, जब लगि करह न दाया।" मे रघुपतिकी दयाके बिना मायाका दूर होना असम्भव माना है । जैन कवि भूधरदासने भी भगवन्त - भजनसे ही मोह-पिशाचका नाश होना स्वीकार किया है,
"मोह पिशाच छल्यो मति मारै, निज कर कंध वसूला रे। मज श्री राजमतीवर भूधर, दो दुरमति सिर धूला रे ॥
भगवंत भजन क्यो भूला रे ॥" किन्तु अनेक स्थानोंपर जैन कवियोने यह भी स्वीकार किया है कि माया न तो भगवान्की भेजी हुई है और न भगवान्की कृपासे दूर ही हो सकती है । इसे तो मनुष्य मोहनीयकर्मका नाश करके ही जीत पाता है। बनारसीदासको दृष्टिमें मायारूपी बेलिको उखाड़नेमे केवल ज्ञानी आत्मा ही समर्थ है। उन्होंने आत्माको योद्धा कहते हुए लिखा है,
"माया बेली जेती तेती रेत में धारेती सेवी,
फंदा ही को कंदा खोदे खेती को सो जोधा है। __ जैन कवि भगवतीदास 'भैया' का कथन है कि कायारूपी नगरीमे चिदानन्दरूपी राजा राज्य करता है। वह मायारूपी रानीमे मग्न रहता है । जब उसका सत्यार्थकी ओर ध्यान गया, तो ज्ञान उपलब्ध हो गया और मायाको विभोरता दूर हो गयो,
१. नाटक समयसार, ६।१३, पृ० २८१ । २. विनयपत्रिका, पूर्वाद्ध, ११६वॉ पद, २१६ । ३. भूधरविलास, कलकत्ता, १६वॉ पद, पृ० ११ ॥ ४. नाटकसमयसार, दिल्ली, मोक्षद्वार, तीसरा पद्य, पृ०८१ ।