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________________ तुलनामा विवेचन १८५ "काया सी जु नगरी में चिदानन्द राज करे माया सी जु रानी पै मगन बहु भयो है। ऐसी राजधानी में अपने गुण भूलि रह्यो, सुधि जब आई तबै ज्ञान आप गह्यो है।" आराध्यकी अन्य देवोंसे महत्ता अन्य देवोंसे अपने आराध्यको बड़ा बतानेका भाव एकेश्वरवादको भावनासे अनुप्राणित है । कबीरको दृष्टिमे बहुदेववादो उस व्यभिचारिणो स्त्रोके समान है, जो अपने पतिको छोड़कर जारोपर आसक्त रहती है। चरनदामका कथन है कि चाहे सिर टटकर पथ्वीपर लोटने लगे, किन्तु रामक सिवा किसी अन्य देवताके समक्ष न झुके। ' वैष्णव और जैन दोनों ही कवियोंने अपने आलम्बनके अतिरिक्त किसी औरकी भक्ति नहीं की। उनकी दष्टिमे अन्य देव स्वयं भिखारी है, फिर वे दूसरोंको याचना कैसे पूरी कर सकते है। सूरदासने अन्य देवोंसे भिक्षा मांगनेको रसनाका व्यर्थ प्रयास कहा है। जैन कवि भूधरदासने भी, "भूवर पद दालिद क्यों दलिहैं, जो हैं आप भिखारी'' कहकर उमीका समर्थन किया है । तुलसीदासने लिखा है कि अन्यदेव मायासे विवश हैं, उनकी शरणमें जाना व्यर्थ है। भगवतीदास 'भैया' का भी कथन है कि और सब देव रागी द्वेषी हैं, उनकी सेवा करनेसे पाप १. भगवतीदास 'भैया' ब्रह्मविलास, जैनग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई, सन् १६२६३० शत अष्टोत्तरी, २८वाँ सवैया, पृ० १४ । २. नारि कहावे पीव को, रहै और संग सोय । जार सदा मन मै बसै, खसम खुशी क्या होय ॥ सन्त बानी संग्रह, भाग १, पृ० १८ । ३. यह सिर नवे त राम कुँ, नाही गिरयो टूट । आन देव नाहिं परसिए, यह तन जायो छूट ॥ वही, पृ० १४७ । ४. 'जांचक पैजांचक कह जाँचै? जो जाँचे तो रसना हारी॥" सूरसागर, प्रथम स्कन्ध, ३४वाँ पद, पृ०१२ । ५. भूधर विलास, कलकत्ता, ५३वाँ पद, पृ० ३०। ६. देव दनुज मुनि नाग मनुज सब माया-बिबस विचारे । तिनके हाथ दास तुलसो प्रभु, कहा अपुनपौ हारे । विनयपत्रिका, पूर्वार्ड, १०१वाँ पद, पृ० १६२ । ३२
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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