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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि
कैसे कट सकते हैं ? तुलसीदासने अन्य देवोंको स्वार्थी कहा है, वे शरणागतको रक्षा करनेमें भी असमर्थ है। द्यानतरायने तीनो भवनोंमे जिनेन्द्र के समान अन्य कोई सामर्थ्यवान् देव नही देखा। केवल जिनेन्द्र हो 'भव-जीवनि' को तारनेमे समर्थ हैं।
इस भांति जैन और वैष्णव दोनों ही ने अपने-अपने आराध्यको अन्य देवोंसे बड़ा माना है । यद्यपि इससे भक्तकी एक निष्ठा प्रकट होती है, किन्तु अन्य देवोंके प्रति कड़वाहटका भाव किसी भांति सराहनीय नहीं कहा जा सकता। इस विषयमें वैष्णव और जैन दोनों ही कवियोने शालीनताका उल्लंघन किया है । सूरदासने अपने आराध्यको कामधेनु और दूसरोंको अजा कहा, वहांतक तो ठीक है, किन्तु जब उन्होंने 'हय गयंद उतरि कहा गर्दभ चढ़ि धाऊँ" कहा, तो स्पष्ट ही मर्यादाका उल्लंघन था। इसी भाँति भूधरदासने जबतक जिनेन्द्रकी वाणीको केतकीका फूल
और दूसरोंकी वाणीको कनेरका पुष्प तथा एकको गाय-दूध और दूसरीको आक-दूध कहा, वहांतकके ठीक था, किन्तु जब उन्होंने एकको कोयलकी टेर और दूसरीको काग-वांणी कहा," तो स्पष्ट रूपेण शालीनताको सीमाका अतिक्रमण किया।
१. रागी द्वेषी देख देव ताको नित करै सेव,
ऐसो है अबेव ताको कैसे पाप खपनो ॥ भगवतीदासे 'भैया', जिनधर्म पचीसिका, १६वाँ कवित्त, ब्रह्मविलास, पृ० २१५ । २. और देवन की कहा कहौ, स्वारथहिं के भीत।
कबहुँ काहु न राखि लियो, कोउ सरन गयउ सभीत ।। विनयपत्रिका, उत्तरार्द्ध, २१६वॉ पद, पृ० ४२४ । ३. तुम समान कोउ देव न देख्या, तीन भवन छानी ।
आप तरे भव जीवनि तारे ममता नहिं आनी ।। द्यानतपदसंग्रह, कलकत्ता, २८वा पद, पृ० १२ । ४. कामधेनु छोड़ि कहा अजा लै दुहाऊँ,
हय गयंद उतरि कहा गर्दभ चढ़ि धाऊँ ॥ सूरसागर, प्रथम खण्ड, काशी, १६६वाँ पद, पृ० ५४ । ५. कैसे करि केतकी कनेर एक कही जाय,
आक दूध गाय दूध अन्तर घनेर है। पीरी होत री री पै न रीस करै कंचन की, ___ कहाँ काग वांणी कहाँ कोयल की टेर है ॥ भूधरदास, जैनशतक, कलकत्ता, १६वाँ कवित्त, पृ० ५।