________________
जैन भक्ति-काव्यका भाव-पक्ष
आध्यात्मिक होलियाँ
जैन साहित्यकार आध्यात्मिक होलियोंकी रचना करते रहे है। उनमें होलीके अंग-उपांगोका आत्मासे रूपक मिलाया गया है। उनमे आकर्षण तो होता ही है, पावनता भी आ जाती है । ऐमो रचनाओको 'फाग' कहते है । इस विषयमें कवि बनारसीदासका ‘फाग' बहुत ही प्रसिद्ध है। उसमे आत्मारूपी नायक शिवसुन्दरीसे होली खेला है। कविने लिखा है, "सहज आनन्दरूपी वसन्त आ गया है, और शुभ भावरूपी पत्ते लहलहाने लगे है। सुमतिरूपी कोकिला गहगही होकर गा उठी है, और मनरूपी भौंरे मदोन्मत्त होकर गुंजार कर रहे है। सुरतिरूपी अग्निज्वाला प्रकट हुई है, जिससे अष्टकर्मरूपी वन जल गया है। अगोचर अमूर्तिक आत्मा धर्मरूपी फाग खेल रहा है। इस भांति आत्मध्यानके बलसे परमज्योति प्रकट हुई, जिससे अष्टकर्मरूपी होली जल गयी और आत्मा शान्त रसमे मग्न होकर शिव-सुन्दरीसे फाग खेलने लगा।"
"विषम विरष पूरो भयो हो, प्रायो सहज वसंत । प्रगटी सुरुचि सुगंधिता हो, मन मधुकर मयमंत ॥ सुमति कोकिलां गहगही हो बही अपूरब बाउ । भरम कुहर बादर फटे हो, घट जाड़ो जड़ताउ ॥ शुभ दल पल्लव लहलहे हो होहिं अशुभ पतझार । मलिन विषय रति मालती हो, विरति वेलि विस्तार ॥ सुरति अग्नि ज्वाला जगी हो, समकित भानु अमंद । हृदय कमल विकसित भयो हो, प्रगट सुजश मकरंद ॥ परम ज्योति प्रगट मई हो, लागी होलिका आग ।
आठ काठ सब जरि बुझे हो, गई तताई भाग ॥" कवि द्यानतरायने दो जत्थोके मध्य होलीकी रचना की है। एक ओर तो बुद्धि, दया, क्षमारूपी नारियां है और दूसरी ओर आत्माके गुणरूपी पुरुष है । ज्ञान और ध्यानरूपी डफ तथा ताल बज रहे है, उनसे अनहदरूपी धनघोर शब्द निकल रहा है । धर्मरूपी लाल रंगका गुलाल उड़ रहा है, और समतारूपी रंग दोनों ही पक्षोंने घोल रखा है। दोनों ही दल प्रश्नके उत्तरकी भांति एकदूसरंपर पिचकारी भर-भरकर छोड़ते हैं । इधरसे पुरुषवर्ग पूछता है कि तुम किसकी नारी हो, तो उधरसे स्त्रियां पूछती हैं कि तुम किसके छोरा हो । आठ कर्मरूपी काठ अनुभवरूपी अग्निमे जल-बुझकर शान्त हो गये। फिर तो सज्जनों
१. बनारसीविलास, जयपुर, अध्यात्मफाग, पृ० १५४-१५५ ।