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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि के नेत्ररूपी चकोर, शिवरमणोके आनन्दचन्दकी छविको टकटकी लगाकर देखते हो रहे।"
"आयो सहज बसंत खेलें सब होरी होरा । उत बुधि दया छिमा बहु ठाढ़ी, इत जिय रतन सजे गुन जोरा ॥ ज्ञान ध्यान डफ ताल बजत हैं, अनहद शब्द होत घनघोरा । धरम सुराग गुलाल उड़त है, समता रंग दुहूँ ने घोरा ॥ परसन उत्तर भरि पिचकारी, छोरत दोनों करि करि जोरा । इतः कहै नारि तुम काकी, उततै कहै कौन को छोरा ।। आठ काठ अनुमव पावक में, जल बुझ शान्त मई सब ओरा ।
धानत शिव आनन्द चन्द छवि, देखहिं सज्जन नैन चकोरा ॥"' भूधरदासको नायिकाने भी अपनी सखियोंके साथ श्रद्धा-गगरीमें आनन्दरूपी जलसे रुचिरूपी केशर घोलकर, और रंगे हुए नीरको उमंगरूपी पिचकारीमे भरकर अपने प्रियतमके ऊपर छोड़ा। इस भांति उसने अत्यधिक आनन्दका अनुभव किया।
जगरामकी होलियोंमें चित्र उपस्थित करनेकी अद्भुत क्षमता है। एक ओर जिनराजा है, दूसरी ओर शुद्ध परिणति रानी। दोनों एक-दूसरेके हृदयको, अनुभवरूपी रंगसे, सुरतिरूपी पिचकारीके द्वारा छिड़क रहे है। दोनोके अंगअंग रंगमे सराबोर हो गये हैं । कोई बचा नहीं है। इस सुखमे दोनों लीन है । किसी प्रकार भी बिछुडते नहीं बनता। दोनो अतुल अनन्त वीर्य से युक्त है । प्रभुके इस अद्भुत कौतुकको देखकर दर्शकका मनरूपी नट उमंगित होकर नाचे बिना नही रह सकता।
"होरी को भाछयौ ख्याल मच्यो है। जिनराजा सुद्धि परिणति रानी, रस बस दोऊ चाहि रच्यो है ॥
१. धानतराय, चानतपदसंग्रह, जिनवाणी प्रचारक कार्यालय, कलकत्ता, ८६वाँ पद,
पृ० ३६-३७। २. सरधा गागर में रुचि रूपि, केसर घोरि तुरंत ।
आनंद नीर उमंग पिचकारी, छोडो नीकी भंत ॥ होरी खेलोंगो, घर आये चिदानंद कंत ॥ भूधरदासका पद 'होरी खेलोंगी', अध्यात्मपदावली, पं० राजकुमार सम्पादित,
भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, पृ० ७५ । ३. पदसंग्रह नं० ४६२, पत्र ३६, बधीचन्दजी मन्दिर, जयपुर ।