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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि
पाण्डव-पुराण
इसको हस्तलिखित प्रति जयपुरके तेरहपन्थी मन्दिरमे मौजूद है । इसकी रचना वि० सं० १६५४ मे नौधकमे हुई थी।
४०. गणि महानन्द (वि० सं० १६६१ )
तपागच्छके प्रसिद्ध श्रीहीरविजयसूरिकी शिष्यपरम्परामे एक श्री विद्याहर्ष हुए। उनके शिष्य गणि महानन्द थे। सम्भवतया महानन्द गुजरातके रहनेवाले थे, क्योकि उनकी रचनापर गुजरातीका अधिक प्रभाव है। ऐसा प्रतीत होता है कि गुजराती उनकी मातृ-भाषा थी। अपने पूर्वाचार्योका उल्लेख करते हुए उन्होने लिखा है कि श्री हीरविजयसूरिने अकबर बादशाहको उपदेश दिया था, और श्रीविजयसेन गणिने अकबरके दरवारमे भट्ट नामके एक विद्वान्को वाद-विवादमे परास्त किया था,
“श्री विजयसेन गणधार रे। जिणि शाहि अकबरनी सभा मांहि, मट्ट सुंरे कीधो कीधो बदुभ मंग रे। मिथ्यामत रेषड़ी करी रे जिणि गढ्यु गढ्यु जिनशासनि रंगरे ॥"
महानन्दकी एक-मात्र रचना 'अंजना-सुन्दरी रास' है, जो रायपुरमे वि० सं० १६६१ मे रची गयी थी। अंजना हनुमान्की मां थी। उनपर अनेक आपत्तियां आयीं, किन्तु वे जिनेन्द्रकी भक्तिसे विचलित न हुई। उनका सारा जीवन भक्तिका ही जीवन है। उनकी तुलना मीरासे नही की जा सकती। मीराने लौकिक पक्षको नगण्य समझा, अलौकिकमे ही विभोर बनी रही। अंजनाने लोक और अलोक दोनों ही का समान रूपसे निर्वाह किया। उसने गृहस्थाश्रमके कर्तव्योंका भी पालन किया, और वीतरागी भगवान् से प्रेम भी किया।
१. वेदवाणषडब्जांके वर्षे तिषेथ मामि चंद्रे ।
नोधकानगरेऽकारि पाण्डवानां प्रबन्धकः ॥६७॥
प्रशस्तिसंग्रह, प्रथम भाग, दिल्ली, प्रस्तावना, पृष्ठ २४, पादटिप्पणी ३ । २. गणि महानन्द, अंजनासुन्दरीरास, अन्तिम प्रशस्ति, जैन सिद्धान्त-भवन धारा
की हस्तलिखित प्रति । अंजना सुन्दरी रास, अन्तिम प्रशस्ति, पद्य ११ ।