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जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य
१४१ अंजना सुन्दरी रास
इस रासमें अंजनाके जीवनकी विविधता चित्रित की गयी है। अंजनाकी विरहावस्था उन सबमे उत्कृष्ट है। कही प्रियसे मिलनेको उत्कण्ठा है, कहीं प्रियके इष्ट-अनिष्टकी चिन्तामे खाना-पीना तक विस्मरण हो गया है, और कही प्रियकी स्मति जन्य विभोरताने वस्त्रो तकको विशृंखल कर दिया है। सब कुछ नसगिक है, बनावटका आभास भी नहीं। वही पतिव्रता जब अकारण ही पति-द्वारा तिरस्कृत होती है, तो इस दुःखको प्रथम मिलनकी स्मतिसे उपशम कर लेती है। उसकी सासने भ्रमवशात अंजनाको घरसे निकाल दिया, उस समय वह गर्भिणी थी। उस समयका करुणाजनक दृश्य काव्यका मार्मिक स्थल है। किन्तु अंजनाने भगवानका सहारा न छोड़ा। उसके जीवनका यह भाग गहरी भगवद्भक्तिसे युक्त है।
बीच-बीचमे प्राकृतिक दृश्योका चित्रण भी स्वाभाविक ढंगसे हुआ है । वसन्त आ गया है। चारो ओर वनमाला फल गयी है। कलियोंमे बहार आने लगी है. जैसे कंकमका रंग घोलकर चारों ओर छिटक दिया गया हो। ऐसी शोभाके मध्यमे सुन्दरी अंजना हाथमें मंजरी लिये अपनी सखियोंके साथ क्रीड़ा कर
रही है,
"फूलिय वनह वनमालीय वालीय करई रे टकोल । करि कुंकुम रंग रोलीय घोलीय झकम झोल ॥ खेलइ खेल खंडो कली मोकली सहीयर साथ ।
अंजना सुंदरी सुंदरी मंजरी ग्रही करी हाथ ॥५४॥" मधुकर गुंजार कर रहे है। कोयल बोल रही है, और मलयानिल बह रहा है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि महानप मदनने विरहिणियोंको दण्ड देनेके लिए ही यह सब आयोजन किया हो। तभी तो अलियोंकी गुंजारमे मारका विकार, कोयलको कूकमें कन्तसे मिल नेकी हूक और मन्द-सुगन्ध पवनमे उद्दीपनकी आग है,
"मधुकर करई गुंजारव मार विकार वहति । कोयल करई पटहूकड़ा टूकड़ा मेलवा कंत ॥ मलयाचल थी चलकिउ पुलकिउ पवन प्रचंड ।
मदन महानुप पाझइ विरहीनि सिर दंड॥५५॥" १. इसकी हस्तलिखित प्रनि जैन सिद्धान्त-भवन आरामें मौजूद है। इसमें कुल २२
पन्ने है।