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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि इसी वसन्तमे देवता नन्दीश्वरको यात्रा करते हैं। वहाँके मन्दिरोंमे चढ़ानेके लिए उनके हाथमे सुगन्धित फूल होते है,
"एणि समई नंदीसर वरई सुरवर जाइ यात्र ।
दीसह गयण वहंता कर गृही कुसुमनां पात्र ॥५६॥" अंजनाको जैन मुनियोंकी भक्तिमे आनन्द मिलता था। वह प्रायः उन्हें आहार दिया करती थी। एक बार उसने आहार देनेके लिए 'नन्दन' नामके मुनिका पडिगाहन किया, जिन्होने अपने दुर्द्ध तपसे संसारको जीत लिया था। वे चरमशरीरी थे। उनके गुणोको गाकर प्रत्येक मनुष्य आनन्दका अनुभव करता है, और उसके सब मनोवाछित पूरे हो जाते है,
“इणि परिगायु अंजना, सुंदरी नंदन धीर । द्रव्य भाव वेरी प्रबल, जिण जीत्या जा बड़वीर ॥ चरम शरीरी सुगुण नर, गातां होइ आणंद ।
घइ मनवंछित संपदा, हम बोलह गणि महानंद ॥५६-५७॥" डॉ० रामसिंह तोमरने महाणंदि-द्वारा रचित एक 'आणंद स्तोत्र'को बात कही है । इसमें ४३ पद्य है। किन्तु अब यह प्रमाणित हो गया है कि वे महाणंदि एक भिन्न व्यक्ति थे। उनकी रचना 'आणंदा'से सिद्ध है कि उसका निर्माण विक्रमकी चौदहवीं शताब्दीमे हुआ होगा। 'आणंदा'का प्रकाशन 'सम्मेलन-पत्रिका मे हो चुका है।
४१. मेघराज (वि० सं० १६६१ ) __ ये पार्श्वचन्द्रसूरिगच्छके साधु थे। इनकी गुरु-परम्परा इस प्रकार थी : पावचन्द्र, समरचन्द्र, राजचन्द्र और श्रवणऋषि । मेघराज श्रवण ऋषिके शिष्य थे। इसी शताब्दीमे एक दूसरे मेघराज भी हुए है, वे मेघमण्डल कहलाते थे और जो दिगम्बर ब्रह्म-शान्तिके शिष्य थे। उन्होने 'शान्तिनाथ चरित्र' की रचना की थी। किन्तु मेघमण्डल सतरहवी शताब्दोके पूर्वार्धमे और मेघराज उत्तरार्धमे हुए थे। एक तीसरे मेघराज और थे जो भानुलब्धिके शिष्य थे और जिन्होंने 'सत्तरभेदी पूजा' का निर्माण किया था।
मुनि मेघराज एक प्रौढ़ साहित्यकार थे। भाव, भाषा और शैली सभी दृष्टियों१. नलदमयन्तीरास, अन्त भाग, पच २-५, जैनगुर्जरकविश्रो, भाग १, पृष्ठ ४०२ ।