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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि
यह उर जानत निश्चय हीन । जिन महिमा वर्णन हम कीन ॥ पर तुम भक्ति थकी वाचाल । तिस वश होय कहूँ गुणमाल ॥" मिथ्या-मतका वृक्ष लगा हुआ है, उसपर जन्म और मरणके फूल लगे हैं। वह दुःख रूप फलोंको देनेवाला वृक्ष सिवा भक्तिरूपी कुठारके और किसीसे नहीं कट सकता,
"जन्म जरा मिथ्यामत मूल । जन्म मरण लागे तहँ फूल ॥ ____सो कबहूँ बिन भक्ति कुार । कटै नहीं दुख फळ दातार ॥ १३ ॥" एकीभाव स्तोत्र ___ यह वादिराज मुनिके 'एकीभाव स्तोत्र'का भाषानुवाद है। किन्तु इतना सफल अनुवाद है कि मूलका रस कहींपर भी विशृंखल नहीं हो पाया है।
भगवान्की भक्तिरूपी गंगामें जो स्नान कर लेता है, वह फिर कभी अपवित्र नहीं हो पाता। यह गंगा स्याद्वादरूपी पर्वतसे निकलकर मोक्षरूपी समुद्रमे गिरती है,
"स्याद्वाद गिरि उपजे मोक्ष सागर लौं धाई। तुम चरणाम्बुज परस भक्ति गंगा सुखदाई। भौचित निर्मल थयो न्होन रुचि पूरब तामै ।
अब वह हो न मलीन कौन जिन संशय यामैं ॥ १६॥" तत्त्वविद्या धनके धारी गुरु गणेशजी कहते हैं कि हे जिन ! तुम ज्योतिस्वरूप हो और दुरितरूपी अन्धकार निवारण करनेवाले हो। जबतक तुम मेरे चित्तरूपी घरमें बसोगे, तबतक पापरूपी अन्धकारको रहने का अवकाश ही नहीं मिल सकता,
"तुम जिन जोति स्वरूप दुरित अँधियारि निवारी । सो गणेश गुरु कहैं तत्त्व विद्या धन धारी ।। मेरे चितघर माहिं बसौ तेजोमय यावत ।
पाप तिमिर अवकाश तहां सो क्यों करि पावत ॥ २॥" पार्श्वपुराण,
इस महाकाव्यको रचना वि० सं० १७८९ आषाढ़ सुदी ५ को हुई थी। १. स्तोत्रका प्रकाशन जिनवाणी संग्रहमें हुआ है। इसमें कुल २७ पद्य है । जिनवाणी
संग्रह, पृष्ठ २४६-५२। २. संवत् सतरह से समय, और नवासी लीय।
सुदि अषाढ़ तिथि पंचमी, ग्रन्थ समापत कीय ॥ पाचपुराण, ३३६वाँ पद्य, पृष्ठ ११ ।