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________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य को भक्ति भी-भगवान्को कृपासे ही मिल सकती है । देखिए, "मव मव अनुभव प्रातमकेरा; होहु समाधिमरण नित मेरा । जबलौं जनम जगत मैं लाधौं, काल लब्धि बल लहि शिव साधौं । तबलौं ये प्रापति मुझ हूजो, भक्ति प्रताप मनोरथ पूजौं । प्रभु सब समरथ हम यह लोरें, भूधर अरज करत कर जोरै ॥" पार्श्वनाथ स्तुति __ इसमें भगवान् पार्श्वनाथकी महिमाका वर्णन है। इसका प्रकाशन 'जिनवाणी संग्रह में हो चुका है। कविने लिखा है, भगवान् पार्श्वनाथका नाम सुधारसके समान शीतलता और शान्ति प्रदान करनेवाला है। उसकी पूरी महिमा गानेमें शक्र भी समर्थ नहीं है, फिर मैं तो उपहासास्पद ही लगूंगा। अब तो यह ही प्रार्थना है कि जबतक मैं मोक्ष प्राप्त करूं, तबतक प्रत्येक जन्ममें आप स्वामी और मैं सेवक रहूँ, "पारस प्रभु को नाउँ, सार सुधारस जगत मैं । मैं वाकी बलि जाउँ, अजर अमर पद मूल यह ॥१॥ यों अगम महिमा सिंधु साहब, शक्र पार न पावहीं। तजि हासमय तुम दास भूधर भगतिवश यश गावहीं। अब होउ भव-भव स्वामि मेरे, मैं सदा सेवक रहौं। कर जोरि यह वरदान मागौं, मोखपद जावत लहौं ॥ १०॥" पार्श्वनाथ स्तोत्र यह स्तोत्र भी उपर्युक्त 'जिनवाणी संग्रह' मे ही छप चुका है। इसमे कुल २२ पञ्च है । दोहा-चौपाईका प्रयोग किया गया है। स्तुतिको अपेक्षा यह स्तोत्र अधिक सरस और जीवन्त है। भगवान् पार्श्वनाथके यशका वर्णन जब चार ज्ञानके धारक मुनि भी नहीं कर पाते, तो एक साधारण भक्तकी क्या सामर्थ्य है, जो उसका कीर्तन कर सके। किन्तु भगवान्को भक्तिसे प्रेरित होकर उससे जो कुछ करते बनता है, वह करता. ही है । इस भांति भक्तको लघुताका यह चित्र अतीव सुहावना है, "प्रभु इस जग समरथ ना कोय । जासों तुम यश वर्णन होय ।। चार ज्ञान धारी मुनि थकैं। हम से मंद कहा कर सके। १. वही, पृष्ठ १३३-३४ । २. वही, पृष्ठ १३५-३७ । ३. वही, पृष्ठ २६१-६४।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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