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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि साथ 'ज्ञानपीठ पूजाजलि'मे भी छपी है। ___ संसारमै दुष्ट कर्मोके ही कारण इस जीवको विविध दुख मिलते है । कर्म एक बहुत बड़े दुश्मनके समान है। उससे छुटकारा पानेके लिए दुखिया भक्त दीनदयाल प्रभुसे प्रार्थना कर रहा है,
"महो जात गुरु एक, सुलिए अरज हमारी। तुम प्रभु दीनदयाल, मैं दुखिया संसारी ॥ इस मव-वनके माहि, काल अनादि गमायो । भ्रम्यो चहुंगति माहि, सुख नहिं दुख बहु पायो । कर्म महारिपु जोर, एक न कान करै जी ।
मन माने दुख देहिं, काहू सों न डरै जी।" पाप और पुण्यने मिलकर पैरोमे बेड़ो डाल दो है, और तनरूपी कारागृहमें बहुत अधिक दु.ख दिया है। हे जगवन्ध ! मैने इनका कुछ नहीं बिगाडा था, ये तो अकारण ही बैरी बन गये हैं। अब मैं आपके सुयगको सुनकर आपकी शरणमें आया हूँ। हे नीति-निपुण जगराय ! हमारा न्याय कर दीजिए।
"पाप पुण्य मिलि दोय, पायनि बेड़ी ढारी। वन काराग्रह माहि, माहि दियो दुख मारी ॥ इनको नेक विगार, मैं कछु नाहिं कियो जी। विन कारन जगवन्य, बहुविध बैर लियो जी ॥ अब आयो तुम पास, सुन जिन सुजस तिहारो।
नीति-निपुन जगराय, कोने न्याव हमारो॥" भूधरकी भक्ति स्वामि-सेवक भाव ही प्रधान है। फिर भी उनका सेवक गुलामकी घिनौनी अवस्था तक नहीं पहुंचा है। आप कहीपर भी उसे घिधियाते नहीं देखेंगे। उसने सुना कि भगवान् पतितोंका उद्धार करनेवाले हैं और वह भी अपने दुखोंको लेकर उनके पास पहुँच गया,
"जै जगपूज परम गुरु नामी, पतित उधार न अंतरजामी ।
दास दुखी तुम अति उपगारी, सुनिए प्रभु ! अरदास हमारी ॥॥" भव-भवमे आत्मा उज्ज्वल बने और समाधिमरणपूर्वक अन्त हो। ऐसा मोक्षप्राप्ति तक होता रहे । यह सब कुछ भगवान्की भक्तिसे ही सम्भव है, और भगवान्
१. ज्ञानपीठ पूजांजलि, खण्ड ६, पृष्ठ ५२२-५२३ । २. वही, पृष्ठ ५२२ । ३. वही, पृष्ठ ५२३ । ४. बहज्जिनवाणी संग्रह, पृष्ठ १३२ ।