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जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य तीर्थक्षेत्र बन जाता है । उस धूलको मस्तकपर चढ़ाते हुए भूधरदास अत्यधिक गौरवान्वित है,
"रंग-महल में पौढ़ते, कोमल सेज बिछाय । ते पच्छिमनिशि भूमि में, सो| संवरि काय ॥
ते गुरु मेरे मन बसो॥ गज चढ़ि चलते गरब सों, सेना सजि चतुरंग। निरखि निरखि पग वे धरै, पालें करुणा अंग ॥
ते गुरु मेरे मन बसो॥ वे गुरु चरण जहाँ धरै, जग में तीरथ जेह । सो रज मम मस्तक चढ़ौ, 'भूधर' मांगे येह ॥
ते गुरु मेरे मन बसो॥" बारह-भावना ___ यह अनेकों बार प्रकाशित हो चुकी है। अभी-अभी 'ज्ञानपीठ पूजाजलि' मे भी इसका प्रकाशन हुआ है। इसमे सासारिक जीवनकी असारताको सरसताके साथ कहा गया है। इस संसारमें राजा और रंक सबको मरना है । मरते समय कोई रोक नही सकता, बड़ीसे बडी ताक़त भी नही। यह जीव संसारमें जब तक रहा, दुःखी रहा, चाहे उसके पास धन था या नहीं,
"राजा राणा छत्रपति, हाथिन के असवार । मरना सबको एक दिन, अपनी अपनी बार ॥ दल बल देई देवता, मात-पिता परिवार । मरती बिरियां जीव को, कोई न राखन हार ॥ दाम बिना निधन दुखी, तृष्णावश धनवान । कहूं न सुख संसार में, सब जा देख्यो छान ॥ आप अकेलो अवतरै, मरै अकेलो होय ।
यूं कबहूं इस जीव को, साथी सगा न कोय ॥" जिनेन्द्र-स्तुति
भूधरदासके द्वारा निर्मित तीन जिनेन्द्र-स्तुतियोंका प्रकाशन 'जिनवाणी सग्रह' मे ही हुआ है। जिनमे-से 'अहो जात गुरु एक'वालो सरस स्तुति उचित संशोधनके
१. वही, दूसरी गुरुस्तुति, पृष्ठ १५१ ॥ २. ज्ञानपीठ पूजांजलि, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, १६५७ ई०,खण्ड ६, पृ० ५२८-५२६ । ३. बृज्जिनवाणी संग्रह, पृ० १३२-३४, ५२८-३०, ५३०-३१ ।।