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________________ ३४२ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि विश्वास है कि गुरुके अनुग्रहके बिना वे कट नही सकती। गुरु एक उस राजवैद्यकी भांति है, जो भ्रमरूपी रोगको तो तुरन्त ही ठीक कर देता है। उनका गुरु केवल 'परोपदेशे पाण्डित्यं' वाला गुरु नही है, अपितु वह स्वयं भी इस संसारसे तरता है और दूसरोको भी तारता है । देखिए, "बंदी दिगम्बर गुरु चरन जग, तारन तरन जान । जे भरम मारी रोग को हैं, राजवैद्य महान ॥ जिनके अनुग्रह बिना कमी, नहिं कटै कर्म जंजीर । ते साधु मेरे उर वसहु, मम हरहु पातक पीर ॥" जैन गुरु तपस्वी होता है । वे जेठको तपती दोपहरियोमे, जलते पर्वतोंको उत्तुग शृंगपर, पावसकी भयावह रातोमें, टप-टप् करते वृक्षोंके नीचे, और शीतकालमें तुषारावृत नदी और सरोवरोंके तटपर ध्यान धारण कर बैठते है । भूधरदास ऐसे गुरुको अपने मनमे स्थापित कर, अपनेको गौरवान्वित मानते है,२ "जेठ तपै रवि आकरो, सूखै सरवर-नीर । शैल-शिखर मुनि तप तपैं, दाझै नगन शरीर ॥ __ ते गुरु मेरे मन बसो॥ पावस रैन डरावनी, बरसे जलधर धार । तरुतल निवसें साहसी, बाजै झंझावार । ते गुरु मेरे मन बसो ॥ शीत पड़े कपि-मद गलै, दाहै सब बन राय । ताल तरंगिनि के तटै, ठाड़े ध्यान लगाय ॥ ते गुरु मेरे मन बसो॥ यह विधि दुद्धर तप तपैं, तीनों काल मझार । लागे सहज सरूप में, तनसो ममत निवार ॥ ते गुरु मेरे मन बसो॥" भूधरदासका गुरु वह ही है, जिसने इन्द्रियोंको वशमें किया हो और सुख तथा वैभवाको लात मार दी हो। जो पहले रंगमहलोंकी कोमल शय्याओंपर पौढ़ता था, और अब रातके पिछले पहरमे थोड़ा-सा शरीरको संकोच कर, भूमिपर सो लेता है। पहले जो चतुरंगिणी सेना सजाकर हाथीपर चलता था, अब जमीनको देख-देखकर चलता है। ऐसे गुरुओंके चरण जहाँ पड़ते है, वह स्थान १. वही, पहली गुरु स्तुति, पृ० १४८ । २. वहीं, दूसरी गुरुस्तुति, पृष्ठ १५० ।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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